दीपक की बातें

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Wednesday, October 10, 2012

सिंगल स्क्रीन की 'उम्मीदें'


मुझे फिल्में देखने का जबर्दस्त चस्का है। इतना कि जब तक हफ्ते में तीन-चार फिल्में ना देख लूं चैन नहीं पड़ता। अब इतनी फिल्में देखनी हैं तो मल्टीफ्लेक्स तो अफोर्ड नहीं कर पाउंगा। एेसे में मेरा ठिकाना बनते हैं सिंगल स्क्रीन थिएटर्स। कानपुर में रहने के दिनों की जितनी यादें हीर पैलेस, सपना और गुरुदेव पैलेस से जुड़ी हैं, उतनी रेव थ्री, रेव मोती या आइनॉक्स की नहीं हैं। एेसे में सिंगल स्क्रीन थिएटरों को लेकर मेरा भावुक होना लाजिमी है।

आमतौर पर सिंगल स्क्रीन थिएटर्स में किस स्तर की फिल्में लगती हैं ये सबको पता है। देशभर में सिंगल स्क्रीन थिएटर्स का हाल किसी से छुपा नहीं है। अपने शहर इंदौर में भी सिंगल स्क्रीन थिएटर्स किस हालत में हैं सबको पता है। एेसे में हाल में रिलीज हुई कुछ फिल्में इन सिंगल स्क्रीन थिएटर्स के लिए एक हसीन फुहार की तरह साबित हो रही हैं। हाल ही में रीगल सिनेमाहॉल में फिल्म इंग्लिश-विंग्लिश देखने पहुंचा। रीगल को लेकर मेरा अब तक का अनुभव यही रहा है कि यहां युवाओं के पसंद की बोल्ड फिल्में लगती हैं। पूरे हफ्ते फिल्म के शोज फुल रहते हैं और काफी हद तक कमाई हो जाती है।

इस बार सिनेमा हॉल के बाहर इंग्लिश-विंग्लिश का पोस्टर देखकर थोड़ी हैरानी हुई। टिकट खिड़की पर लंबी लाइन लगी हुई थी। इसमें सिर्फ युवा या छात्र ही शामिल नहीं थे बल्कि फैमिली के लोग भी बड़ी तादाद में आए हुए थे। के नहीं, फैमिली क्लास के लोग भी आए हुए थे। मेरे लिए यह हैरान करने वाला सुखद अनुभव था।कुछ दिन पहले एेसा ही अनुभव आस्था सिनेमाहॉल में फिल्म ओह माय गॉड को देखते हुए हुआ था। यहां भी बड़ी तादाद में भीड़ उमड़ी हुई थी। तमाम परिवार वाले यहां मौजूद थे। निश्चित तौर पर सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल के मालिकों को उनके इस हिम्मतभरे कदम के लिए शाबाशी देनी चाहिए।

ओह माय गॉड और इंग्लिश-विंग्लिश को मल्टीप्लेक्स नेचर की फिल्में कहा जा सकता है। सिंगल स्क्रीन पर इसे लगाना जोखिम का काम है। पहले ही अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के मालिक एेसी फिल्में कम ही लगाते हैं। उन्हें डर होता है कि फैमिली वाले तो सिंगल स्क्रीन में आएंगे नहीं। एेसे में कहीं घाटा हो गया तो उबरना बेहद मुश्किल हो जाएगा। यही वजह है कि अब तो बहुत से सिंगल स्क्रीन्स में बी या सी ग्रेड की फिल्में ही लगने लगी हैं। इसके पीछे मालिकों की मंशा किसी तरह फिल्म की लागत भर निकाल लेने की होती है। मगर जिस तरह से ओह माय गॉड और इंग्लिश-विंग्लिश को दर्शकों ने रिस्पांस दिया है, इससे निश्चित तौर पर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के मालिकों को एक आस बंधी होगी।

अगर सिंगल स्क्रीन थिएटर्स में फैमिली लायक माहौल, अच्छी फिल्में और थोड़ा स्तरीय सुविधाएं मिलें तो दर्शकों को वापस मोड़ा जा सकता है। हां, लेकिन इसके लिए सिंगल स्क्रीन मालिकों को हिम्मत दिखानी होगी।

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