दीपक की बातें

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Tuesday, October 28, 2014

किंग खान की फिल्म और दर्द—ए—दर्शक

जब आप फिल्म देखने जाते हैं तो सिर्फ फिल्म नहीं देखते। आपके आस—पास भी ढेरों शो चल रहे होते हैं। 24 अक्टूबर को जब मैं शाहरुख खान की नई फिल्म हैप्पी न्यू ईयर देखने पहुंचा तो मुझे कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। पढ़िए पूरा अनुभव... 

  • 3.40 का शो देखने के लिए 2 बजे घर से निकला। 
  • टिकट खिड़की पर वो लंबी लाइन। लगा कि अब तो 4.30 के शो का टिकट भी नहीं मिलेगा। 
  • कान और ध्यान पूरी तरह केबिन के अंदर बैठी मोहतरमा की स्पीकर से छन—छन करके आती घन—घन आवाज पर 
  • जी सर, नहीं सर, 3.40 का शो तो हाउसफुल हो चुका है।
  • दिल बैठा जा रहा है, यार! घर पर बोल के आया हूं कि 3.40 का शो है। 7 बजे तक घर आ जाउंगा। अब क्या होगा
  • बगल वाली विंडो पर एक भइया अगले दिन के लिए टिकट बुक करा रहे हैं। सुबह से लेकर शाम तक पूरा शिड्यूल पूछ डाला। पीछे वाले परेशान हैं। यार, हमें आज का तो मिल नहीं रहा। अंकल कल के चक्कर में हमारा टाइम भी वेस्ट कर रहे हैं
  • आस—पास युवक—युवतियों, गर्लफ्रेंड—ब्यॉफ्रेंड, पति—पत्नी, परिवार—बेपरिवार, फैशनेबल—अनफैशनेबल। टिप—टॉप, टाइप के काफी लोग जमा हुए हैं।
  • खुसर—पुसर का दौर है, ठहाके हैं। मेकअप से सजे चेहरे मेकअप का बाकायदा ध्यान रखते हुए मुस्कुराहट बिखेर रहे हैं। 
  • मुस्कुराहट कई बार, तय लक्ष्य के परे तक पहुंच रही है और बहुत से भाई लोग इन मुस्कुराहटों को लपकने के लिए भी प्रयत्नशील दिखाई दे रहे हैं। 
  • इन नजरों और नजारों को देखा—अनदेखा करते हुए टिकट खिड़की तक पहुंचता हूं। 
  • 1 टिकट हैप्पी न्यू ईयर का। देखिए अगर 3.40 के शो में मिल जाए तो...। 
  • सर एक मिनट, मोहतरमा की आवाज गूंजी। तभी मुस्कुराईं, मैंने बाईं ओर देखा, स्टाफ का कोई बंदा खड़ा है। तेरे को बोली मैं तभी ले जाने को। बोल कितने टिकट। 
  • मैं हैरान भी हूं और परेशान भी। यार कुछ टिकट जरूर बचे होंगे, अब इसने स्टाफ को थमा दिया। 
  • खैर, वो फुरसत हुई। हां, सर! 3.40 शो की एक टिकट प्लीज। एक मिनट सर देखती हूं। 
  • हां सर, मिल जाएगा। टॉप से सिक्स्थ रो। 
  • हां, दे दीजिए। 
  • थोड़ा सुकून मिला। अब घर समय पर पहुंच जाउंगा। 
  • टिकट लेकर तीसरी मंजिल पर बने थिएटर तक पहुंचे। भीड़ काफी है। लोग पहुंच रहे हैं। 
  • बाहर लगे पोस्टरों को देखकर दो लड़के आपस में बात कर रहे हैं— यार, 8 पैक ऐब्स बहुत बढ़िया नहीं दिख रहे हैं।
  • दूसरा कह रहा है, अबे बुढ़ा भी तो रहा है शाहरुख। 
  • तीर—चार बच्चे, इधर—उधर दौड़ रहे हैं। उनके मम्मी—पापा परेशान।
  • रोहन, डोंट! आर्इ् विल पनिश यू...रोहन को परवाह ही नहीं है! 
  • हॉल में एंट्री होने लगी है। न कोई ट्रेलर, न विज्ञापन, सीधा फिल्म शुरू।
  • फिल्म शुरू हुए 10 मिनट बीत चुके हैं, किसी तरह का कोई रिएक्शन नहीं। न शाहरुख की एंट्री पर, न ही उसकी पिटाई पर।
  • नंदू भिड़े के किरदार की एंट्री पर भीड़ थोड़ी सी कुनमुनाई है। 
  • मेरी बगल वाली सीट पर बैठा 6 साल का बच्चा, बार—बार मेरे चश्मे का खोल उठा रहा है। 
  • सर, कोई आॅर्डर, कोक, समोसा, बर्गर ईटीसी...ईटीसी...
  • लोगबाग चना—चबैना लेते रहते हैं, मानो फिल्म देखने नहीं, खाने—पीने के लिए ही आए हों। 
  • खाने—पीने से जब लोगों को फुरसत मिलती है तो लोग थोड़ी सी फिल्म भी देख लेते हैं, थोड़ा सा ठहाका भी लगा लेते हैं। 
  • फिल्म खत्म होने के बाद अब भीड़ निकल रही है। लोगों की स्पीड स्लो है।
  • पता चलता है सामने एक दादी अम्मा चल रही हैं, 75 साल की उम्र। अगल—बगल से दो युवा उन्हें थामे हुए हैं। 
  • मैं शाहरुख खान की इस खास फैन को दिल ही दिल प्रणाम करके घर रवाना हो लेता हूं।

Sunday, September 21, 2014

नसीर बाबू, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा!

फिल्मी दुनिया में ढेरों कहानियां गढ़ी जाती हैं। माना तो यही जाता है कि सिनेमा कल्पनाओं का संसार है। मगर कभी-कभी कल्पना की इस दुनिया का सामना जिंदगी की हकीकत से हो जाता है। सिनेमा की जिंदगी और जिंदगी के सच का एक ऐसा ही मिलन इन दिनों सामने आया है। असल में मशहूर फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने अपनी आत्मकथा लिखी है। इसमें उन्होंने अपनी पहली पत्नी और बेटी हीबा के बारे में खुलासा किया है। एक अरसे तक वह ये बात दुनिया के सामने लाने से कतराते रहे। इस आत्मकथा के बाद दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने खुद माना है कि उन्होंने हीबा को अपने प्यार से महरूम रखा।

ये तो हुई नसीर साहब की जिंदगी की बात। अब आइए जरा सिनेमाई दुनिया में झांकते हैं, जहां पर एक फिल्मी सीन उनकी जिंदगी से दिलचस्प ताल्लुक रखता है। बात हो रही है फिल्म 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' की। यह फिल्म अगर आपने देखी हो तो फरहान अख्तर द्वारा निभाए गए इमरान के किरदार को याद कीजिए? इसमें इमरान के पिता बने थे यही नसीरुद्दीन शाह। फिल्म में उन्होंने एक ऐसे शख्स की भूमिका निभाई है, जिसने एक लड़की से प्यार तो किया, लेकिन उसे और उसकी संतान को अपना नाम नहीं दिया।

जब इमरान स्पेन जाने की योजना बना रहा होता है तो उसकी मां बनीं दीप्ति नवल पूछती हैं कि स्पेन में क्या वह अपने पिता से मिलेगा? जबकि उन्होंने आज तक एक फोन भी नहीं किया उसका हाल जानने के लिए। इमरान तब वह कहता है कि हो सकता है कि फोन आया हो, लेकिन मां ने बताया ना हो। वह बड़ी उम्मीद से अपने पिता से मिलता है, लेकिन पहली ही मुलाकात में उसके सारे अरमान धुल जाते हैं। जिम्मेदारी न उठा पाने की अपनी मजबूरी का हवाला देकर नसीर का किरदार बड़ी आसानी से अपना पल्ला झाड़ लेता है। एक बार भी सोचे बगैर कि उस बेटे पर क्या बीतेगी, जो आजतक उन्हें इतनी शिद्दत से मोहब्बत करता रहा।

अब निजी जिंदगी में नसीरुद्दीन शाह अपनी बेटी हीबा से कितनी बार मिले, हीबा ने 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' फिल्म देखी होगी या नहीं यह बातें तो वही लोग जानें। बस एक पल के लिए हीबा को 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' के इमरान की जगह रखकर देखिए। दर्द का सैलाब आंखों का रास्ता ढूंढने लगेगा। कभी मिला नसीर साहब से तो पूछना चाहूंगा कि निजी जिंदगी की हीबा और फिल्मी परदे के इमरान के बीच इस विडंबनात्मक समानता पर उनकी क्या राय है? यह भी कि क्या 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' का वह छोटा सा रोल करते वक्त वो अपनी जिंदगी के इतने बड़े सच को जी रहे थे? क्या उस एक सीन ने उनके दिल में तो वह कसक नहीं पैदा कर दी कि वह हीबा को दुनिया से रूबरू कराने निकल पड़े?

Sunday, April 27, 2014

जली हुई कविताएं...

जली हुई डायरी के पन्नों में
हर्फ़ अब भी नज़र आ रहे थे सारे
समेटकर फिर से
उन कविताओं को बुन देना चाहता था
मगर मेरे हाथ आती सिर्फ कालिख!
कालिख से लिखी थी
और सिर्फ कालिख ही बची!
जैसे जिंदगी जलकर कालिख हो जाए!

रिवॉल्वर रानी में कंगना की खनक

3  स्टार
पिछले कुछ वक्त में कंगना रानाउत ने अपना एक अलग मुकाम बनाया है। उन्होंने रिस्क उठाया है, अलग रोल चुने हैं और उसका फायदा भी उन्हें मिला है। कृष और क्वीन की बेशुमार सफलता के बाद अब कंगना पर्दे पर रिवॉल्वर रानी बनकर उतरी हैं। फिल्म की कहानी है चंबल की रहने वाली अलका सिंह (कंगना रानाउत) की। अलका को उसके मां-बाप की मौत के बाद बल्ली मामा (पीयूष मिश्रा) ने पाला है। अलका सिंह गोली-बंदूकों के बीच पली-बढ़ी है। शादी होने के बाद वह उसका पति बेवफा निकलता है और अलका उसे गोलियों से भून देती है। अलका चुनाव में खड़ी होती है, लेकिन भ्रष्ट नेता उदयभान उर्फ भानु सिंह (जाकिर हुसैन) से हार जाती है। इससे तिलमिलाई अलका बदला लेना चाहती है, मगर इसी बीच उसे स्ट्रगलिंग एक्टर रोहन (वीर दास) से प्यार हो जाता है। अब इन सबके बीच अलका क्या करती है, यही फिल्म में दिखाया गया है।

पहले कुछ अच्छी बातें
फिल्म की अच्छी बातों में सबसे पहले नंबर आता है कंगना की एक्टिंग का। कंगना ने एक बार फिर साबित किया है कि हटके रोल करने में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है। अगर देखा जाए तो फिल्म एक ब्लैक कॉमेडी है। भ्रष्ट मंत्री के भाइयों हरकतें करते हैं, कंगना की कॉमिक टाइमिंग, अंग्रेजी में इंटरव्यू, वीर दास का अंदाज और जिस तरह से समाचार चैनल पर खबर पढ़ी जाती है, सब इसे मजेदार बनाते हैं। इसी तरह कंगना के ड्रेस सेलेक्शन वाला सीन भी फनी है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक भी अच्छा है। वहीं क्लाइमेक्स भी जोरदार है।
एक्टिंग भी फिल्म का सशक्त पहलू है। पीयूष मिश्रा हों, वीर दास या फिर जाकिर हुसैन सबने अपना रोल ढंग से निभाया है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में सईद जीशान कादरी, डीना उप्पल और निकुंज मलिक ने भी प्रभावित किया है।

अब कमजोरियां
फिल्म की शुरुआत बहुत थकाऊ है। पहले 15 मिनट तक कुछ समझ में नहीं आता है। वहीं स्क्रीनप्ले काफी कमजोर है। अक्सर कहानी में तारतम्य नहीं बैठता है। अलका की दास्तान को और गहराई से बयां करने की जरूरत थी, ताकि लोग उससे जुड़ पाते। अलका का अपने मामा से मतभेद क्यूं है, यह बात जस्टीफाई नहीं हो पाती। पहला हॉफ भी बहुत इंप्रेसिव नहीं है। कुछ सीन बहुत ज्यादा बोल्ड हैं। गोलियां और गालियां भी थोक के भाव में हैं। हालांकि फिल्म को यू/ए सर्टिफिकेट मिला है, लेकिन फिर भी फैमिली इसे अवॉयड ही करेगी।

फाइनल पंच
कंगना की एक और यादगार परफॉर्मेंस, लेकिन फैमिली क्लास न होना इसके रास्ते की बाधा बनेगी। फिल्म में भिंड-मुरैना की भाषा का टच है, जो कि लोकल लोगों को इससे जोड़ेगा। अगर आप कंगना के फैन हैं, तो एक बार फिल्म देखना तो बनता है।

Saturday, April 19, 2014

नॉवेल से परदे तक के सफर पर 'टू स्टेट्स'

3.5 स्टार
आज के दौर में बहुत से लोग होंगे जिन्होंने चेतन भगत का लिखा '2 स्टेट्स' नॉवेल न पढ़ा हो। दिलचस्प ढंग से यही बात फिल्म के पक्ष में भी जाती है और इसके खिलाफ भी। अगर आपने नॉवेल पढ़ा है तो आप इसके किरदारों को परदे पर देखने के लिए रोमांचित हो सकते हैं, लेकिन इस बात का भी डर है कि फिल्म में आपको कोई नयापन न नजर आए और आप इसे एंज्वॉय न कर सकें। बहरहाल, इन सारी बातों के बावजूद २ स्टेट्स एक अच्छी फिल्म है, जो मनोरंजन करती है।

फिल्म की कहानी है पंजाबी कृष मल्होत्रा (अर्जुन कपूर) और तमिल ब्राह्मण अनन्या स्वामीनाथन (आलिया भट्ट) की। आईआईएम में पढ़ाई के दौरान दोनों की दोस्ती होती है और फिर प्यार। दोनों एक-दूसरे से शादी करना चाहते हैं, लेकिन परिवार वाले कल्चर, कलर, बोली-भाषा के बीच अंतर को देखते हुए इसकी इजाजत नहीं देते। फिर दोनों एक-दूसरे के परिवार को मनाने के लिए कैसे और क्या-क्या पापड़ बेलते हैं, यही फिल्म में दिखाया गया है।

सधा निर्देशन
निर्देशक अभिषेक वर्मन अपनी पहली फिल्म में कतई निराश नहीं करते। उनके सामने एक बेहद पॉपुलर नॉवेल को फिल्म की शक्ल में उतारने की चुनौती थी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया भी। हालांकि उनकी इस बात के लिए आलोचना हो सकती है कि वह इसमें कुछ नयापन नहीं ला सके। मसलन संवादों और घटनाक्रमों में हेर-फेर करके वह इसे कुछ और चुटीला बना सकते थे। इसके साथ ही फिल्म की लंबाई थोड़ी कम की जा सकती थी। सबसे खास बात यह है कि यह एक प्रेम-कहानी होने के साथ-साथ दो कल्चरों और बाप-बेटे के अंर्तद्वंद की भी कहानी है। निर्देशक ने इसके साथ पूरी तरह न्याय किया है। फिल्म के कुछ दृश्य बेहद इमोशनल हैं और दिल को छू लेते हैं।

आलिया-अर्जुन का मैजिक
इस फिल्म में आलिया और अर्जुन की जोड़ी गजब की लगी है। दोनों के बीच पर्दे पर बढि़या केमेस्ट्री है और यह फिल्म के लिए बोनस का काम करती है। आलिया ने एक बार फिर अपनी शानदार एक्टिंग से चौंकाया है। स्टूडेंट ऑफ द ईयर और हाइवे के बाद उनकी एक और चमकदार परफॉर्मेंस। वहीं अर्जुन ने भी इस बार निराश नहीं किया है। अपने किरदार के विभिन्न रंगों को कायदे से उभरने दिया है। परदे पर अर्जुन की मां बनीं अमृता सिंह ने कमाल का काम किया है, वहीं अर्जुन के पिता के किरदार में रोनित रॉय बहुत इंप्रेस नहीं कर पाते। हां, अनन्या की मां बनीं रेवती ने जरूर प्रभावित किया।

शानदार लोकेशंस
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी बढि़या है और खूबसूरत लोकेशंस दिल को छू लेती हैं। खासतौर पर साउथ के जितने भी दृश्य दिखाए गए हैं, वह बेहद खूबसूरत बन पड़े हैं। फिल्म के गाने माहौल के हिसाब से मुफीद हैं और संगीत भी। डायलॉग्स अधिकांशत: नॉवेल से ही उठाए गए हैं और चुटीले हैं।

फाइनल पंच
युवाओं से फिल्म खूब कनेक्ट करती है और उन्हें पसंद भी आएगी। साथ ही उम्मीद की जानी चाहिए को इस फिल्म के जरिए अर्जुन कपूर को अपनी पहली बड़ी हिट फिल्म मिल सकती है।

Tuesday, April 15, 2014

चुनावी माहौल में 'भूतनाथ रिटन् र्स'

तीन स्टार
पूरे देश में चुनावी माहौल है और फर्ज कीजिए कि इसी बीच एक भूत आए और अपना नॉमिनेशन फाइल कर दे? जी हां, यही कहानी है इस शुक्रवार रिलीज हुई फिल्म 'भूतनाथ रिटन् र्स' की। भूतनाथ (अमिताभ बच्चन) जब वापस भूतलैंड पहुंचता है तो लोग उसके ऊपर हंसते हैं, कि वह एक बच्चे तक को डरा नहीं पाया। इधर दोबारा जन्म लेने के लिए भी लंबी वेटिंग है। इस बीच उसे मौका मिलता है कि वह दोबारा धरती पर जाए और लोगों का डराकर भूतों का सम्मान वापस दिलाए। भूतनाथ लौटकर धरती पर आता है तो उसे यहां अखरोट (पार्थ भालेराव) मिल जाता है जो उसे देख सकता है। अब भूतनाथ का सामना होता है यहां के हालात और मुश्किलों से। स्थानीय विधायक भाऊ (बोमन ईरानी) ने अपने बाहुबल के दम पर जबर्दस्त भ्रष्टाचार फैला रखा है। हालात एेसे बनते हैं कि भूतनाथ को भाऊ के खिलाफ चुनाव लडऩा पड़ता है। आगे की कहानी कई जबर्दस्त उतार-चढ़ाव से भरी है, जिसमें गंभीर बातें तो हैं ही, हास्य की फुहार भी खूब है।

पहला हॉफ जबर्दस्त
पहले हॉफ में फिल्म जबर्दस्त है। यहां पर एक-एक सीन बढि़या है। कहानी, अभिनय और डायलॉग से लेकर सिनेमैटोग्राफी तक। निर्देशक ने इतने शानदार ढंग से प्लॉट को बुना है कि कपोल कल्पना लगने वाली कहानी भी सच्ची लगने लगती है। इसके साथ ही फिल्म में महंगाई, करप्शन और सरकारी कर्मचारियों की कामचोरी पर गहरे ढंग से कटाक्ष किया गया है।  इसे और भी सजीव बना देते हैं अमिताभ बच्चन, पार्थ, बोमन ईरानी और संजय मिश्रा। इन सभी ने अपने अभिनय और डायलॉग डिलीवरी का शानदार नमूना पेश किया है। मगर रुकिए मैंने अभी तक सिर्फ फस्र्ट हॉफ की बात की है। दूसरा हॉफ इतना मजेदार नहीं है। यह जबर्दस्ती खींचा गया सा लगता है।

बढि़या एक्टिंग और डायलॉग
फिल्म में सभी कलाकारों ने बढि़या एक्टिंग की है। अमिताभ तो हैं ही, लेकिन तारीफ करनी होगी पार्थ की। कई जगहों पर उन्होंने अमिताभ को भी पसीने छुड़ा दिए हैं। इसके बाद बारी आती है बोमन ईरानी की। एक बाहुबली नेता के रोल में उन्होंने जान डाल दी है। वहीं संजय मिश्रा ने भी गुदगुदाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। बाकी भूमिकाओं में ऊषा जाधव और ब्रजेंद्र काला ने भी अपनी भूमिका ढंग से निभाई है।
फिल्म के डायलॉग भी काफी क्रिस्पी हैं। खास बात यह है कि डायलॉग्स को बाजारू बनाने के बजाए उनमें ह्यूमर का विटी पुट डाला गया है। सिनेमैटोग्राफी बढि़या है, लेकिन गाने इतने खास नहीं हैं।

फाइनल पंच
चुनाव के मौसम में फिल्म एक बार देखनी तो बनती है। कहने को तो फिल्म बच्चों की है, लेकिन 'वोट दें जरूर, चाहे किसी को भी दें' का मैसेज खास गंभीर है।

Saturday, April 5, 2014

माइंडलेस, लेकिन मनोरंजक है 'मैं तेरा हीरो'

तीन स्टार
'मैं तेरा हीरो' फिल्म देखते हुए आपको अब तक की बहुत सारी फिल्में याद आएंगी। खासकर 90 के दशक में देखी हुई डेविड धवन और गोविंदा की फिल्में। उस वक्त के कॉमेडी किंग कहे गए डेविड धवन ने वही सारे मसाले आजमाए हैं, जो उन्होंने कभी गोविंदा और सलमान के साथ आजमाए थे। अपने बेटे को इंडस्ट्री में जमाने के लिए उन्होंने बिल्कुल सेफ गेम खेला है।

फिल्म की कहानी है सीनू (वरुण धवन) की, जिसका असली नाम है श्रीनाथ प्रसाद। वह ऊटी का रहने वाला है और उसके शहर में उससे हर कोई तंग है। यही कारण है कि जब वह अपना शहर छोड़कर बेंगलुरू जाता है तो पूरा शहर उसे छोडऩे स्टेशन पर आ जाता है। बेंगलुरू में सीनू कॉलेज का दिल एक लड़की सुनयना (इलियाना डिक्रूज) पर आ जाता है। मुश्किल यह है कि सुनयना को एक गुस्सैल पुलिसवाला अंगद (अरुणोदय सिंह) भी पसंद करता है। वहीं अंडरवल्र्ड डॉन विक्रम (अनुपम खेर) की बेटी आयशा (नरगिस फाखरी) को सीनू से एकतरफा प्यार हो जाता है और वह सुनयना का अपहरण करवा लेती है। किसे अपना प्यार मिलेगा, यही फिल्म की कहानी है।

टिपिकल डेविड धवन फॉर्मूला
टिपिकल डेविड धवन फॉर्मूला फिल्म। कुछ भी नया नहीं है। सबकुछ देखा सुना हुआ है। 90 के दशक में इन्हीं फॉर्मूलों के दम पर डेविड धवन ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी एक अलग पहचान बना रखी थी। एक बार फिर से उन्होंने वही सब आजमाया है। चिकना-चुपड़ा हीरो है, जो गुंडों की पिटाई भी कर सकता है और किसी से भी पंगा ले सकता है। सिर्फ यही नहीं, वह भगवान से बात भी कर सकता है और भगवान उसका जवाब भी देते हैं। इसके अलावा आधे कपड़ों में लिपटी दो खूबसूरत हिरोइनें हैं, जिन्हें देखकर भ्रम होता है कि कहीं कुपोषण के चलते उनकी हड्डियां तो नहीं निकल आईं? साथ में आज का जरूरी फैशन डबल मीनिंग डायलॉग्स तो हैं ही।

दिमाग न लगाना
इस फिल्म का हीरो ऐसे कॉलेज में पढ़ता है, जहां कभी क्लास चलती ही नहीं। पास न होने पर वह अपने ही प्रोफेसर की बेटी का अपहरण कर लेता है और वह भी शादी के दिन। फिल्म में एक पुलिसवाला भी है जिसने अपने गुंडे पाल रखे हैं और जिसका एकमात्र काम उस लड़की के साथ इश्क लड़ाना है, जिसपर उसका दिल आ गया है। इसके अलावा एक बहुत बड़ा अंडरवल्र्ड डॉन भी है, जिसके घर में ढेरों गुंडे होने के बावजूद, वह खुद ही रात में घर से भागे अपने दामाद को ढूंढता है।

प्लस प्वॉइंट
फिल्म का प्लस प्वॉइंट है, इसका बोझिल न होना। यह एंटरटेन करती है। अभिनय के मामले में वरुण धवन ने अपना सिक्का चलाया है। अपनी पहली फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' में उन्होंने संभावनाएं जगाई थीं और उन्हें वह यहां आगे बढ़ाते हैं। डांस और एक्शन से लेकर कॉमेडी तक में उन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। इसके अलावा सौरभ शुक्ला ने भी अच्छा काम किया है। डॉन के भाई के रूप में अपनी हरकतों से वह लगातार हंसाते रहते हैं। यही वजह है कि पहले भाग की तुलना में दूसरा भाग ज्यादा मनोरंजक है। अनुपम खेर, राजपाल यादव और अरुणोदय सिंह भी अपनी भूमिकाओं में फिट हैं। फिल्म के गाने अच्छे हैं। खासतौर पर गलत बात है, शनिवारी रात और पलट।

फाइनल पंच
'मैं तेरा हीरो' आपको पसंद आएगी, लेकिन शर्त है कि आप दिमाग घर पर छोड़कर जाएं। वैसे दिमाग से देखने के लिए सिनेमाघरों में 'कैप्टन अमेरिका' और 'जल' भी चल रही हैं।

Thursday, March 27, 2014

डर कम, सेक्स ज्यादा: रागिनी एमएमएस-2

तीन स्टार
फिल्म रागिनी एमएमएस का भूत ऐसा है जो आपको डराता भी है तो अंग प्रदर्शन करते हुए। जी हां, इस फिल्म में आपको डर की डोज तो मिलेगी ही, साथ ही मिलेगा सनी लियोनी की दिल को लुभाती अदाएं भी। फिल्म की कहानी कुछ यूं है कि फिल्म निर्देशक रॉक्स (प्रवीण डबास) रागिनी एमएमएस स्कैंडल पर फिल्म बनाना चाहता है।

स्कैंडल कुछ ये था कि उदय और रागिनी एक सुनसान बंगलो पर मौज-मस्ती करने जाते हैं। वहां भूतों का साया होता है। रागिनी की मां ऐसा न करने के लिए मन करती है, लेकिन इसके बावजूद रॉक्स शूटिंग करने जाता है। रागिनी का किरदार निभाने के लिए सनी (सनी लियोनी) को चुनता है। फिल्म की शूटिंग के दौरान ही सेट पर अजीब-अजीब घटनाएं होने लगती हैं।


जैसा कि फिल्म के बारे में पहले से ही प्रचारित किया गया है, यह हॉरर और सेक्स का मिश्रण है। फिल्म में कई डराने वाले दृश्य हैं और दर्शकों को चौंकाते हैं। वहीं समानांतर ढंग से रोमांटिक और अंतरंग दृश्य भी हैं। निर्देशक ने डराने की बढिय़ा कोशिश की है। फिल्म के कलाकारों का काम बढिय़ा है।

सनी लियोनी ने जमकर एक्सपोज किया है। वहीं प्रवीण डबास, संध्या मृदुल और सत्या के रोल में साहिल प्रेम ने भी बढिय़ा काम किया है। फिल्म में एक अहम भूमिका में दिव्या दत्ता भी नजर आई हैं। फिल्म का म्यूजिक प्लस प्वॉइंट है और 'बेबी डॉल' और 'वोदका' गाने पहले से ही पॉपुलर हैं।


फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले में नएपन का बिल्कुल अभाव है। अगर आप हॉरर फिल्मों के शौकीन हैं तो इस तरह की कहानी और घटनाओं वाली बहुत सी फिल्में आपने देख रखी होंगी। बहुत सारे सीन और सीक्वेंसेस आपको देखे हुए लगेंगे। जैसे सनी लियोनी के हवा में उडऩे का सीन। या फिर दिव्या दत्ता का किरदार, वगैरह।
हां, फिल्म में बोल्ड दृश्यों की भरमार है।

सनी लियोनी से एक्टिंग की बहुत उम्मीद तो नहीं थी। मगर ऐसा लगता है निर्देशक ने सनी लियोनी की नाइटीज और ब्रा की डिजाइन और वैरिएशन चुनने में ज्यादा ध्यान दिया है।


अगर आप सनी लियोनी के फैन हैं और बोल्ड व हॉरर फिल्में पसंद हैं तो एक बार देख सकते हैं।

Tuesday, March 11, 2014

‘गुलाब गैंग’ वहां से शुरु होती है जहां से जूही का किरदार शुरु होता है


(शुक्रिया दिनेश सर, इसे अपने ब्लॉग पर जगह देने के लिए! दिनेश सर के ब्लॉग पर यहां से जाएं...
http://indianbioscope.com/cinema/gulab-gang-juhi-chawla/20140310/)

फिल्म ‘गुलाब गैंग’ कैसी है और कैसी नहीं इस पर तो कई फिल्म विशेषज्ञ चर्चा कर चुके हैं। मेरा मकसद फिल्म की विवेचना करना कतई नहीं। यहां तो मैं गुलाबी रंग से हटकर फिल्म के एक अलग रंग का जिक्र करना चाहता हूं।

Juhi Chawla in Gulab Gangजी हां, यह रंग था जुही चावला के नायाब अभिनय का। एक ऐसी अभिनेत्री जिसका साल-दर-साल ख्याल आते ही तस्वीर बना करती थी एक चुलबुली बाला की। मस्ती में मगन और बिंदास हंसती हुई। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि खुशमिजाजी और मस्ती के आलम में सराबोर यह अदाकारा जब परदे पर एक करप्ट पॉलिटिशियन का किरदार आत्मसात करेगी तो कहर बरपा देगी। विडंबना देखिए कि खुद जूही ने भी यह रोल अस्वीकार कर दिया था। और अब जबकि परदे पर उनका अभिनय दिख रहा है तो बस एक ही सवाल जेहन में आता है, कहां छुपा रखा था जूही ने अभिनय का यह रंग!

मेरे जेहन में जूही के निभाए कई किरदार आ—जा रहे थे। ‘डर’, ‘इश्क’, ‘मिस्टर और मिसेज खिलाड़ी’ से लेकर ‘सलाम—ए—इश्क’ और ‘सन आफ सरदार’ तक। मगर जितने शानदार ढंग से उन्होंने एक करप्ट पॉलिटिशियन का रोल निभाया है, वह मुझे फिल्म ‘शूल’ के सैयाजी शिंदे का निभाए रोल के समकक्ष लगता है। वही क्रूरता, वही कपट, वही शातिरपन! चेहरे पर आती—जाती भावनाओं का वैसा ही ज्वार—भाटा!
फिल्म का वह दृश्य काबिल—ए—गौर है, जब स्थानीय नेता और अपने होने वाले रिश्तेदार के घर से जूही रिश्ता टूटने के बाद निकलती हैं। मन में गुस्सा है, चेहरे पर आक्रोश है, लेकिन तभी सामने भीड़ नजर आती है। एक मंझे हुए नेता की तरह वह अपने मन की भावनाएं दबाकर बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराकर जनता का अभिवादन करती हैं। जनता माधुरी दीक्षित की जयजयकार करती है, लेकिन वह नाराजगी जाहिर नहीं करतीं, बल्कि हालात का मिजाज समझते हुए माधुरी से मेल बढ़ाने की कोशिश करती हैं। इसी तरह जब बागी नेता उनके घर के सामने शोर मचाता है तो उसे सबक सिखाने के लिए जो ‘रास्ता’ अख्तियार करती हैं, वह भी उनके किरदार के कपट की एक बानगी है।

अपने पति की मौत से मिलने वाले इंश्योरेंस क्लेम की चर्चा करते हुए उनके चेहरे के भावों को गौर कीजिएगा, या फिर चुनाव में जीत से पूर्व जब वह अपने पति की तस्वीर के सामने खड़ी होती हैं! हर फ्रेम में, हर सीन में, जहां भी जूही आई हैं, बस छा गई हैं। यहां तक कि माधुरी के साथ वाले फ्रेम में भी वह आगे नजर आती हैं।

यह फिल्म देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि ‘गुलाब गैंग’ वहां से शुरू नहीं होती, जहां से यह शुरू होती है। बल्कि यह वहां से शुरू होती है जहां से जूही का किरदार शुरू होता है। उनके चेहरे पर भावनाओं का उतार—चढ़ाव, कपट का प्रदर्शन सबकुछ हैरान कर देता है। उनकी अभिनय क्षमता पर संदेह करना तो गुस्ताखी होगी, लेकिन जूही के इस रूप पर तो उनका कट्टर आलोचक भी फिदा हो जाएगा!

Saturday, March 8, 2014

माधुरी और जुही का 'गुलाब गैंग'

तीन स्टार
तमाम विवादों, अड़ंगों और पेचीदगियों के बावजूद आखिर सौमिक सेन की फिल्म गुलाब गैंग सिनेमा हॉल तक पहुंच ही गई। फिल्म की कहानी है एक महिला रज्जो (माधुरी दीक्षित) की। वह लोगों के हितों के लिए लड़ती है। आसपास के क्षेत्रों में उसकी खासी धमक है। एक बड़ी नेता सुमित्रा बागरेचा (जुही चावला) की पार्टी का नेता उसके पास सपोर्ट मांगने आता है और पा भी जाता है। मगर बदलते घटनाक्रम के बीच हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि रज्जो और जुही चावला में ठन जाती है। इस बीच सुमित्रा समझौता करने के लिए रज्जो को बुलाती है और उसे अपनी पार्टी से चुनाव लडऩे का लालच देती है। मगर रज्जो को यह बातें नहीं सुहातीं और वह सुमित्रा के सामने चुनाव लडऩे का फैसला करती है। यहां से शुरू होती है, महत्वाकांक्षा, राजनीतिक साजिश और दो औरतों के अहं की लड़ाई।

फिल्म की सबसे खास बात है माधुरी दीक्षित और जुही चावला। जिस भी फ्रेम में यह दोनों साथ या अलग-अलग आती हैं, पूरी तरह छा जाती हैं। खासतौर पर जुही चावला। एक चालाक, कपटी और भ्रष्ट नेता के रोल में उन्होंने जान फूंक दी है। उनकी बॉडी लैंग्वेज, चेहरे की भाव-भंगिमा और डायलॉग डिलीवरी देखकर हो सकता है आपको एकबार यकीन ही न आए कि इसी जुही को आपने कुछ बेहद चुलबुली और मजाकिया भूमिकाओं में देखा है। माधुरी दीक्षित ने भी अपने किरदार में जान फूंक दी है। खासकर एक्शन दृश्यों में उनकी मेहनत देखते ही बनती है। नृत्य में तो खैर वो पारंगत हैं ही।
फिल्म के अन्य किरदारों में माधुरी के साथ तनिष्ठा चटर्जी, दिव्या जगदाले, प्रियंका बोस आदि ने भी अच्छा काम किया है।

फिल्म की कहानी और निर्देशन में खामियां हैं। शुरुआत में नारी सशक्तिकरण के मुद्दे को उठाते हुए दिखाया जाता है, लेकिन आखिरकार यह एक राजनीतिक गैंगवार तक सिमटकर रह जाती है। कहानी के स्तर पर भी काफी बिखराव है। रिसर्च के स्तर पर भी खामियां हैं। फिल्म में लोकेशन और गाडि़यां मध्य प्रदेश की दिखाई गई हैं, लेकिन एक जुही चावला के किरदार को कुछ कागजात पर दस्तखत करते दिखाया गया है, जिनपर उत्तर प्रदेश और लखनऊ लिखा है। इसी तरह जुही चावला को एक बहुत बड़ा पॉलिटिशियन बताया गया है, उनके सामने पुलिस के अधिकारी तक झुकते हैं और जो नहीं झुकते उन्हें सस्पेंड कर दिया जाता है। मगर जब वह चुनाव लड़ती हैं तो वोट बैलट पेपर से डाले जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में बैलट से वोट तो पंचायत के चुनावों में ही डाले जाते हैं, तो क्या इतनी बड़ी नेता पंचायत चुनाव लडऩे आ गई? यह समझ से परे है। फिल्म के आखिर में जुही चावला से मशीनगन से गोली चलवा डाली है, जो बहुत बेतुका लगता है। इसके अलावा ढेर सारे गाने भी मजा किरकिरा करते हैं।

फिल्म के डायलॉग्स भी काफी अच्छे हैं। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। एक्शन दृश्यों को देखने में मजा आता है। इसके अलावा कोरियोग्राफी भी बढि़या है। गीत-संगीत फिल्म का साथ देते हैं।

गुजरे जमाने की दो शानदार अदाकाराओं को एकसाथ परदे पर देखने का यह बेहतरीन मौका है। खासकर उनके अभिनय की नई ऊंचाईयों के साथ। वैसे ओवरऑल देखें तो फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। वही भ्रष्टाचार, अराजकता, अफसरों का जनता की बातें न सुनना आदि-आदि।
फिल्म में इंदौर शहर के अंकित शर्मा ने भी काम किया है। उन्होंने सरजू नाम का किरदार निभाया है जो अपनी पत्नी को प्रताडि़त करता है। वह फिल्म में माधुरी दीक्षित के हाथों में थप्पड़ भी खाते हैं। करीब 15 मिनट के रोल में अंकित ने अच्छा काम किया है।

Sunday, February 23, 2014

आलिया का अलग ढंग का 'हाईवे'!

तीन स्टार
इम्तियाज अली अलग तरह की फिल्में बनाते हैं। दुनिया के बंधे-बंधाए कायदों से बगावत उनकी फिल्मों में साफ झलकती है। ऐसा ही कुछ असर हाइवे फिल्म में भी नजर आता है।
इस फिल्म में वीरा (आलिया भट्ट) की शादी होने वाली है। शादी से से ठीक एक दिन पहले ही महाबीर भाटी (रणदीप हुडा) उसको अगवा कर लेता है।

शुरू में वीरा बहुत डरी सहमी सी रहती है। जैसे ही उसे अहसास होता है कि महाबीर उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगा तो वह खुलने लगती है। असल में अमीर मां-बाप के घर रहते हुए वीरा कभी खुद को आजाद नहीं महसूस कर पाती। जबकि अपहरण होने के बावजूद महाबीर के साथ वह एक खुलापन सा पाती है। एक दिन वीरा बचपन का अपना दर्द महाबीर को बताती है और यहीं से दोनों के बीच एक अनजान बॉन्डिंग बन जाती है।

इम्तियाज ने फिल्म को नए ढंग से ट्रीट करने की कोशिश की है। सबसे खास बात है कि इम्तियाज ने अपने अभिनेताओं से अच्छा काम लिया है। महाबीर भाटी के रूप में रणदीप हुडा ने चौंकाने की हद तक बढि़या काम किया है। साहब, बीवी और गैंगस्टर के बाद एक्टिंग के लिहाज से यह उनकी दूसरी यादगार फिल्म है।

वहीं आलिया भट्ट की मासूमियत और चंचलता भी अच्छी लगती हैं। सिर्फ एक फिल्म पुरानी आलिया ने अच्छी वैरिएशन दिखाई है।
हालांकि इम्तियाज की कमियां यह हैं कि वीरा के अपहरण के काफी देर बाद तक वह उसके घरवालों का हाल नहीं दिखाते। साथ ही वीरा और महाबीर का अचानक करीब आना और वीरा अपने घरवालों के खिलाफ एकदम भड़क जाना थोड़ा अजीब लगता है।

फिल्म की गति थोड़ी धीमी है और इस वजह से सीमित दर्शकों को ही पसंद आएगी। इंटरवल से पहले फिल्म ज्यादा मनोरंजक है। दूसरे हॉफ में यह थोड़ी सी गड़बड़ा गई है। वहीं एआर रहमान का संगीत उम्मीदों से कमतर है।

हालांकि ओवरऑल फिल्म को देखें तो यह काफी रोचक अनुभव है। पूरी फिल्म में जबर्दस्त और अनदेखी लोकेशंस हैं। सिनेमैटोग्राफी थोड़ा निराश करती है। अगर इस फिल्म को और बेहतर ढंग से शूट किया गया होता तो यह और लाजवाब होती। इसके बावजूद फिल्म को देखना अलग अनुभव है। खासकर घूमने-फिरने के शौकीनों को पसंद आएगी।

दूसरी खास बात है कि फिल्म में यौन शोषण का पक्ष भी रखा गया है। अपने ही परिवार में एक रिश्तेदार के हाथों में शोषण को सहन करती बच्ची की कोई नहीं सुनता। बाद में बड़ी होकर वह इसके खिलाफ बगावत कर देती है। इस दर्द को आलिया ने पर्दे पर बहुत खूबसूरती से जिया है। वहीं निचले तबके से ताल्लुक रखने वाला महाबीर भाटी भी इसी दर्द से जूझ रहा है।

आलिया भट्ट की मासूमियत, रणदीप हुडा के काम और इम्तियाज अली के नाम पर फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।

Saturday, February 8, 2014

हरकतें हंसाएंगी और अदाएं फंसाएंगी

3.5 स्टार
शादी का माहौल, पंजाबी गाना, प्यार, इश्क, मोहब्बत और हंसाती-गुदगुदाती कहानी। करण जौहर का पूरा मसाला मौजूद है 'हंसी तो फंसी' में। निखिल (सिद्धार्थ मल्होत्रा) एक मस्तमौला लड़का है। वह आईपीएस अफसर एसबी भारद्वाज (शरत सक्सेना) का बेटा है। एकदिन वह घर में बिना बताए अपने एक दोस्त की शादी में पहुंच जाता है, जहां उसे करिश्मा (अदा शर्मा) से प्यार हो जाता है। यहीं उसकी मुलाकात एक और लड़की से होती है जो अपना घर छोड़कर भाग रही होती है। बहरहाल सात साल के खट्टे-मीठे अफेयर के बाद निखिल और करिश्मा शादी करने का फैसला करते हैं। दोनों का शादी समारोह शुरू होने पर करिश्मा की बहन मीता (परिणीति चोपड़ा) अचानक आती है। यही वो लड़की है जो निखिल से मुंबई में मिली थी। मीता असल में एक साइंटिस्ट है, लेकिन कुछ मानसिक समस्याओं से परेशान है। अब इन तीनों की यह कहानी कैसे आगे बढ़ती है इसके लिए आपको सिनेमाहॉल तक जाना होगा।


हर्षवर्धन कुलकर्णी की कहानी और स्क्रीनप्ले काफी दिलचस्प हैं। फिल्म में शॉकिंग एलीमेंट्स हैं और आप आसानी से कहानी में आने वाले मोड़ का अंदाजा नहीं लगा पाते। फिल्म के पहले हिस्से में कहानी को जमाने की कोशिश की गई है। इंटरवल के बाद जब कहानी आगे बढ़ती है तो दर्शकों का जुड़ाव भी बढऩे लगता है। खासकर मीता के किरदार के गुत्थियां सुलझने के बाद दर्शक उसे पसंद करने लगते हैं।


यह सिद्धार्थ मल्होत्रा की दूसरी फिल्म है और इसमें उनकी मेहनत साफ नजर आती है। स्क्रीन पर वह काफी प्रजेंटेबल लगे हैं। वहीं परिणीति चोपड़ा का काम वाकई तारीफ के काबिल है। उन्होंने मीता के किरदार में अपने अभिनय की नई रेंज सामने रखी है। अदा शर्मा को स्कोप कम मिला है, लेकिन उन्होंने अपनी तरफ से अच्छी कोशिश की है। बाकी किरदारों में शरत सक्सेना और मनोज जोशी का अभिनय अच्छा है।


बतौर निर्देशक पहली फिल्म में विनिल मैथ्यू ने अच्छा काम किया है। एक पेचीदा कहानी को उन्होंने उलझावों से बचाकर रखा। जहां तक संगीत की बात है तो विशाल-शेखर का संगीत अच्छा है, लेकिन न तो नयापन है न ही गानों में दम है।


ओवरऑल देखें तो हंसी तो फंसी एक मनोरंजक फिल्म है। इसे देखते हुए आप कतई बोर नहीं होते। खासकर वन लाइनर डायलॉग्स काफी फनी हैं। सिंगल स्क्रीन की तुलना में मल्टीप्लेक्स के युवा दर्शक इसे पसंद करेंगे।

Monday, January 20, 2014

ग्लैमर की तल्ख हकीकत दिखाती 'मिस लवली'


3 स्टार
आमतौर पर हम सभी फिल्में देखते हैं। सिनेमा हॉल में मनोरंजन के नाम पर हीरो-हिरोइन की ऊटपटांग हरकतें, बेसिर-पैर की कहानियों, अतार्किक रीमेक और अतिरेकता से भरी फिल्में झेलते रहते हैं। मगर जब 'मिस लवली' जैसी कोई फिल्म उसी ग्लैमर वल्र्ड के चमकदार परदे को चिंदी-चिंदी उड़ाती है तो हम उसे देखने से कतराते हैं। सिर्फ 12 दर्शकों के बीच बैठकर 'मिस लवली' फिल्म को देखते हुए बार-बार यही ख्याल जेहन में आ रहा था।
असल में 'मिस लवली' आंखें खोलने वाली फिल्म है। 80 के दशक में जब फिल्में चलनी कम हो गईं तो किस तरह से निर्माता-निर्देशकों और वितरकों ने पैसे कमाने का शॉर्ट-कट निकाला, उसे बखूबी दिखाया गया है। उस दौरान बी और सी ग्रेड की फिल्में बनाकर, उसके बीच सॉफ्ट पॉर्न और सेमी-पॉर्न फिल्मों के दृश्य भरकर दर्शकों के सामने परोसे गए। इसी रंगीन दुनिया की स्यास सच्चाईयों को निर्देशक अशीम अहलूवालिया ने बड़े बेबाकी से परदे पर उतारा है।

सच का आईना
फिल्म दो भाईयों विकी दुग्गल (अनिल जॉर्ज) और सोनू दुग्गल (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) पर आधारित हैं। यह दोनों सी ग्रेड फिल्मों के कारोबार में लगे हुए हैं। सोनू इससे दूर भागना चाहता है, लेकिन परिस्थितियोंवश वह इसमें घिरता चला जाता है। इसी बीच उसकी मुलाकात पिंकी (निहारिका सिंह) से होती है। सोनू पिंकी से प्यार करने लगता है और उसे लेकर 'मिस लवली' नाम की फिल्म बनाना चाहता है।
फिल्म में सी-ग्रेड इंडस्ट्री की अंदरूनी सच्चाईयों को बड़ी बारीकी से दिखाया गया है। किस तरह यहां लोगों का इस्तेमाल होता है। फिल्मों की चमक-दमक के अंदर कितनी गंदगी और सड़ांध है, इसे भी दिखाया गया है। इन सबके साथ प्यार, धोखा, रिश्ते-नातों की पोल भी खोली गई है।

लाजवाब
निर्देशन शानदार है। असलियत बरकरार रखने के लिए कुछ बी और सी ग्रेड की फिल्मों के दृश्यों का भी इस्तेमाल किया गया है। हालांकि फिल्म में इन्हें धुंधला कर दिया गया है। कैमरावर्क बहुत बढि़या है और लाइटिंग, फिल्म के मूड के हिसाब से है।
फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दिकी समेत सभी कलाकारों ने उम्दा काम किया है। अनिल जॉर्ज और निहारिका सिंह हालांकि कम जाने-पहचाने चेहरे हैं, लेकिन वह अपने काम से प्रभावित करते हैं।

फाइनल पंच
अगर आपको अलग तरह का सिनेमा देखना पसंद है तो 'मिस लवली' आपके लिए मस्ट वॉच है। बाकी ए कैटेगरी की फिल्म है तो फैमिली ले जाने का सवाल ही नहीं उठता।