दीपक की बातें

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Wednesday, August 19, 2009

मेरे मरने तक

मेरे मरने तक ....
जज्बातों के पिघलने तक, इस शाम के ढलने तक।
मेरा दिल तेरी चाहत का तलबगार, तेरा अक्स मेरे जिगर से मिटने तक।
लहू गिरता है कतरा-कतरा, अरमां मेरे दिल का बिखरा- बिखरा,
तेरी तलाश में मेरा प्यार, उम्र का सफर तमाम होने तक।
यादों का सफर लम्हा-लम्हा, तेरी याद में मेरी शाम तन्हा-
तन्हा,
सांसों में तेरी मोहब्बत की खुशबू, मेरे मरने तक।
ख्यालों में मेरे लबों की नरमी-नर्मी, धड़कने हैं मेरी सहमी-सहमी।
गुनगुना लो मेरी मोहब्बत का नगमा, तेरा हाथ मेरे हाथ से छूटने तक।

Monday, August 17, 2009

आइए महसूस करिये जिंदगी के ताप को

आज हम आजादी की ६२वी वर्ष गाँठ मना कर हर्ष में डूबे हैं। पर कुछ यक्ष प्रश्न आज भी हमारे सामने हैं. अदम गोंडवी की यह पुरानी रचना मायावती की इस सरकार में भी सवाल की तरह चुभ रही है.
आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेिड़या है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे जिन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गांव की गलियों में क्या इज्जत रहे्गी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हां मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर जोर था
भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`मेरा मुंह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे´
´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं ´´
यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े ``इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा ``साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें´´
बोला थानेदार ``मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है´
´पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल`
कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल ´
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव में
गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

Wednesday, August 12, 2009

एक शाम कुछ ऐसी

नौ अगस्त का दिन मेरा वीकली ऑफ़। दिन भर रूम में ही पडा रहा। शाम ढली तो सोचा ज़रा घूम-घाम लिया जाए। फ़िर क्या निकल पड़े, मॉल रोड की तरफ़। मेगा मॉल में बिग एफएम का ऑफिस शांतनु सर का साथ, और कुछ बातें। दरअसल कानपुर में यही वो एक जगह है जिसके बारे में मैं थोड़ा दावा कर सकता हूँ की इसे जनता हूँ। जबसे कानपुर आया हूँ शांतनु सर से अक्सर यहीं मुलाकात होती है। यही अक्सर हीर पैलेस में फिल्मे भी देखने आता हूँ। शांतनु सर ने भी वहीँ से पढ़ाई की है जहाँ से मैंने। मतलब पूर्वांचल यूनिवर्सिटी जौनपुर से। वो मुझसे दो बैच पहले के हैं और यहाँ बिग एफएम में काम कर रहे हैं।

उनसे हाल-चाल चल ही रही थी की आर जे आर्यन आ गए। फ़िर तो खूब बातें हुईं। रेडियो, कमल शर्मा, ओपी राठोर, युनुस खान से लेकर आर जे की आवाज़ के बारे में। काफी देर तक बात के बाद जब शाम ढलने लगी तो मैं चलने को हुआ। बाहर बदल बरस चुके थे और धुली हुई सडकों को क़दमों से नापता मैं मस्ती में चला जा रहा था। तभी नज़र सामने भुट्टे वाले पर पड़ी। मन मचल उठा, एक भुट्टा लिया और आसमान से कभी-कभी टपक पड़ती ठंडी बूदों के बीच गर्म भुट्टे का लुत्फ़ उठाने लगा।

अजनबी शहर में अनजाने रास्तों पर कदमबोशी करते हुए मैं सोच रहा था की पता नहीं कितने दिनों बाद यह लम्हा मुझे मिला है। वैसे शहर की अजनबियत इस मामले में मेरी मददगार साबित हो रही थी और मैं बिना किसी खटके के भुट्टे के दानों की गर्मी अपने होठों पर महसूस कर पा रहा था। अपने शहर ऐसे मौके कभी-कभार ही आपको मिलते हैं। सड़क पर चलते हुए तो और भी रिस्क रहता है। एक ही बात का खटका कोई परिचित न मिल जाय। और जब आप अखबार की दुनिया से ताल्लुक रखते हों तो फ़िर ऐसा होने के चांसेस और भी बढ़ जाते हैं।

खैर मैंने शाम को पूरी शिद्दत के साथ एन्जॉय करते हुए चहलकदमी कर रहा था की गहराते अंधेरे ने मेरे दिमाग की घंटी बजाई, बेटा वापस रूम पर भी जाना है। रिक्शा पकड़ा और रूम पर वापस आ गए।


वो आँखों के गहरे इशारे, सिले लबों से ही सब कुछ कह देना।

पास रहने पर दूर जाना, दूर जाने पर हर पल याद आना।

कभी कागज़ पर उतार कर आपने जज्बातों को, मोड़ कर मेरे सामने फेक देना।

मेरे छिप जाने पर ढूढ़ना बेकरारी से, और सामने आने पर तेरे गालों पर छाई वो लाली।

नज़रें झुकाना, बहाने बनाना, परदे के पीछे से बुलाना और फ़िर मुझे चिढाना।

दिए की लौ से जली मेरी उंगली को अपने मुंह में रख लेना।

शरारत, नजाकत, मोहब्बत, इनायत सब याद है मुझको।

दिल के हर कोने में कैद हो तुम, अपनी यादों के साथ, मेरी मोहब्बत के साए में।

Tuesday, August 11, 2009

जिंदगी के सफर में तमाम मुकाम हासिल करने की चाहत होती है। कई बार मंजिल मिल जाती है कई बार भटकाव ही साथी बन जाता हैइस सफर में तमाम बातें याद आती हैं, कुछ साथी याद आतेहैं, कुछ यादें याद आती हैंफ़िर दिल यही कहता है-

तेरी मुस्कराहट तेरा वो प्यार, आज भी है तेरा इंतज़ार

तुम्हे भुला दूंगा ये सोचा भी लिया कैसे तुमने

दिल तुमसे मिलने को आज भी है बेकरार


वाकई जिंदगी का ये साथ है ही कुछ ऐसा, हर रोज एक नई शुरुआत, हर रोज़ नई चीज़ें , कुछ चेहरे नए, कुछ मुलाकातें नई, बातें नईदिल से कुछ यादें मिटती नहींकुछ लम्हे भुलाये नही भूलते। एक अमिट छाप की तरह। फ़िर भी कुछ लोग जिद करते हैं की हम उन्हें भूल बैठे हैंकैसे यकीन दिलाएं की उन्हें भूल जाना कुछ यूँ होगा जैसे ज़िन्दगी को भूल जाना।

फ़िर दिल ये कहता है-

मोहब्बत तुमसे थी, तेरी अदाओं से थी, निगाहें रूबरू तेरी निगाहों से थी

सुलगते जज्बात मचलते अरमां, मदहोशी सी दिल की गहराइयों में थी

जूनून-ऐ-इश्क से मजबूर थे, हालात से लाचार।

तेरे दामन में सिमट जाने की चाह अब भी है, तब भी थी

बेवफा समझा तुमने, हम तुम्हे समझा ना सके,

एक आग भरी इस दिल में तब भी थी, अब भी है।

मिटा दे फासले, दूरियां घटा दे, करीब जा,

तेरी तलाश में रूह मुन्तजिर, अब भी है तब भी थी