जुल्म की तमाम कहानियां
खुद की आंखों से देखी हुईं
तमाम स्याह रातों में
सिसकियां, सुबकियां
बाप के थप्पड़ों की गूंज
मां का रोते हुए रात गुजार देना
खौफ, दहशत और गुस्से से
सहमता, टूटता मेरा बालमन
सुबह होते ही मां जैसे सब भूल जाती
किचन में कलछी की खन—खन
रात में जख्मी कलाइयां
हाथ पर बने लहू के धब्बे
और मां बना रही होतीं
पिताजी की फेवरिट सब्जी
इस राज को आज तक समझ नहीं पाया
मां की सहनशीलता थी या बाप का कायरपन
आज भी जब किसी घर से
'मर्दानगी' की आवाज आती है
मैं हर बार
अंदर तक सुलग जाता हूं।
खुद की आंखों से देखी हुईं
तमाम स्याह रातों में
सिसकियां, सुबकियां
बाप के थप्पड़ों की गूंज
मां का रोते हुए रात गुजार देना
खौफ, दहशत और गुस्से से
सहमता, टूटता मेरा बालमन
सुबह होते ही मां जैसे सब भूल जाती
किचन में कलछी की खन—खन
रात में जख्मी कलाइयां
हाथ पर बने लहू के धब्बे
और मां बना रही होतीं
पिताजी की फेवरिट सब्जी
इस राज को आज तक समझ नहीं पाया
मां की सहनशीलता थी या बाप का कायरपन
आज भी जब किसी घर से
'मर्दानगी' की आवाज आती है
मैं हर बार
अंदर तक सुलग जाता हूं।
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