यह डाकुओं पर बनी पहली ऐसी फिल्म होगी जिसमें डाकुओं ने घोड़े नहीं इस्तेमाल किये हैं।
यह समाज की विडंबना है कि यहां अच्छी चीजों और कामों को सही वक्त पर तारीफ नहीं मिलती। पान सिंह तोमर भी इसी विडंबना को व्यक्त करती है। जब तक पान सिंह सिपाही था, दौड़ता था, देश के लिए मेडल जुटाए, तब किसी ने नहीं पूछा। डाकू बनते ही उसकी सुर्खियां बनने लगती हैं। रेडियो पर नाम आने लगता है। पान सिंह अपना इंटरव्यू लेने आए पत्रकार से पूछता है, जब वह खिलाड़ी था तो उसका इंटरव्यू लेने क्यों नहीं आया।
पान सिंह तोमर एक आम आदमी की कहानी है। जी हां, उसे खास तो व्यवस्था बना देती है, उसके हाथ में बंदूक थमाकर, उसे डाकू बनाकर। पान सिंह कभी उसूलों और कायदों के खिलाफ नहीं जाता। तब भी नहीं जब उसके कोच उसे 5000 मीटर दौड़ से स्टीपलचेज में शिफ्ट होने को कहते हैं, तब भी नहीं जब उसकी लाख इच्छा होते हुए भी उसे जंग के मैदान में नहीं भेजा जाता है, क्योंकि वह खेल से है। उसके दिल में कसक होती है। साथी ताने मारते हैं, मगर वह अडिग है। तब भी नहीं जब दुश्मनों के हाथों बुरी तरह पिटाई के बाद उसका बेटा जिंदगी से जूझ रहा होता है।
हर बार वह कानून और नियम से चलने की बात करता है। मगर जब थाने में उसकी सुनवाई नहीं होती। कानून उसका और उसकी उपलब्धियों का मजाक उड़ाता है और उसकी मां की जान चली जाती है तो वह मजबूर हो जाता है। इसी मजबूरी में वह बंदूक उठा लेता है, मगर उसूल नहीं छोड़ता। वह चाहता तो सरेंडर करके एक बेहतर जिंदगी गुजार सकता था, मगर उसके लिए रेस अधूरी छोड़ना मुमकिन नहीं। वह दम तोड़ देता है, मगर अपने कायदे पर कायम रहता है।
कहानी तीन परतों में है। पान सिंह के फौजी से एथलीट और फिर डाकू बनने की कहानी को तिग्मांशू धूलिया ने बेहद खूबसूरती से पिरोया है। बिना ज्यादा भटके और बिना ज्यादा भीड़ जुटाए वह कहानी की तीनों परतों को पर्याप्त विस्तार और गहराई देने में सफल हैं। यही तिग्मांशू की सबसे बड़ी सफलता है कि वह कथ्य और विषय से भटके नहीं हैं। बल्कि उसे शानदार तरीके से बुना है। कसावट और कहानी की रफ़्तार से बढि़या साम्य बिठाया है। चूंकि फिल्म चंबल पर आधारित है इसलिए डायलॉग में यहां का डायलेक्ट और टोन भी है। ग्वालियर और मुरैना में इस्तेमाल होने वाले शब्द मोड़ा (लड़का), मोड़ी (लड़की) और 'हौ' जिसे मध्यप्रदेश में स्वीकारोक्ति के तौर पर बोलते हैं, शामिल है।
पूरी फिल्म इरफान खान की है और इरफान ने अपने किरदार को निभाया भी खूब है। कुछ दिन पहले एक इंटरव्यू में तिग्मांशू ने कहा था कि उन्होंने इस फिल्म में इरफान को इसलिए लिया क्योंकि उनसे जो चाहिए निकलवाया जा सकता है, मांगा जा सकता है। इरफान ने इस बात को फिल्म में बखूबी साबित कर दिया है। अपने किरदार के सभी लेयर्स को वह बखूबी जी गए हैं। इरफान की खास बात यह है कि वह कभी किसी सिंबल, अतिरिक्त बनावट या हावभाव का सहारा नहीं लेते। उनका सबसे प्लस प्वॉइंट उनकी आंखें और संवाद अदायगी है। बस इन्हीं दोनों के सहारे वह अपने किरदार को पूरी तरह उभार लेते हैं ।
डायलॉग में आंचलिक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए वह अटकते नहीं। जहां तक माही गिल की बात है तो रोल में बहुत लंबाई ना होने के बावजूद उनके लिए करने को बहुत कुछ था, लेकिन अफसोस वह उसमें एक हद तक ही सफल हुई हैं। उनका किरदार भी इरफान की संगत में ही बेहतर होता है। हालांकि एक बेबस पत्नी और मां के तौर पर वह खुद को पूरी तरह जाहिर नहीं कर पाई हैं। नॉन ग्लैमरस रोल में वह कहीं से प्रभावित नहीं कर पातीं। बाकी किरदारों ने भी अपने रोल के साथ न्याय किया है।
फिल्म के कुछ सीन बेहद लाजवाब हैं। जब पान सिंह आखिरी बार अपने परिवार से मिलने आता है। जब वह अपने बेटे से मिलने जाता है। एक और सीन है, जब सिपाही पान सिंह पहली बार घर आता है तो अपनी पत्नी को आलिंगन करते वक़्त उससे चेहरा दिखने को कहता है। मगर जब वह चेहरा नहीं घुमाती तो पान सिंह आइना हाथ में लेकर उसका चेहरा देखने लगता है। पान सिंह की बेबाकी फिल्म में कई खूबसूरत सीन पैदा करती है।
डायलॉग्स भी अच्छे हैं और फिल्म में ह्यूमर का पुट भी अच्छा है। गानों की गुंजाइश थी नहीं और गाने का इस्तेमाल ना करके डायरेक्टर ने ठीक ही किया है, क्योंकि फिल्म की रवानी को प्रभावित करते। बैकग्राउंड साउंड अच्छा है। सिनेमैटोग्राफी भी बढि़या है। चंबल के बीहड़ो और गांवों की खूबसूरती एक अलग समां बांधती है।
(आखिरी पंच- फिल्म के आखिर में तिग्मांशू ने देश के कुछ खास एथलीटों का जिक्र किया है जो अभावों में जीवन बिताने को मजबूर हुए।)
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