दीपक की बातें

Hindi Blogs Directory

Sunday, December 22, 2013

धूम 3 माइनस आमिर खान = 0

चार स्टार
धूम सिरीज की नई पेशकश धूम-३ में सबसे बड़ा सरप्राइज पैकेज हैं आमिर खान। फिल्म की कहानी इस बार शिकागो में सेट की गई है। इकबाल खान (जैकी श्रॉफ) अपने सर्कस को बचाने के लिए जूझ रहे हैं। उन्होंने बैंक से लोन ले रखा है, लेकिन बैंक वाले मोहलत देने को तैयार नहीं हैं। सर्कस डूब जाता है और इस गम में इकबाल खान अपनी जान दे देते हैं। उस वक्त इकबाल का बेटा साहिर (आमिर खान) भी वहां मौजूद होता है। बड़ा होकर बैंक से बदला लेने के लिए साहिर उसमें कई बार चोरियां करता है। हर चोरी के बाद वह हिंदी में एक संदेश भी छोड़कर जाता है। मामले को हल करने के लिए शिकागो पुलिस भारतीय पुलिस के दो जांबाजों जय दीक्षित (अभिषेक बच्चन) और अली (उदय चोपड़ा) को बुलाती है। उधर साहिर अपने पिता के सर्कस को भी फिर से खड़ा करता है और उसके साथ आलिया (कटरीना कैफ) भी काम करने लगती है।

स्क्रीनप्ले और निर्देशन
फिल्म की कहानी में नयापन है। इसमें ढेर सारा ट्विस्ट है जो दर्शकों को बांधे रखता है। शुरुआती सीन से ही फिल्म जबर्दस्त है। फ्लैशबैक और वर्तमान की कहानी में अच्छा तालमेल बनाया गया है। हालांकि ऐसा नहीं है कि फिल्म में कमियां नहीं हैं। लॉजिक की कसौटी पर कसेंगे तो ऐसी सैकड़ों कमियां नजर आएंगी। कुछ दृश्य गैरजरूरी मालूम पड़ते हैं। खासतौर पर अभिषेक बच्चन की एंट्री वाला सीन। इसके अलावा कुछ दृश्यों में अतिरेकता का सहारा लिया गया है। बहरहाल, ड्रामा, सस्पेंस और बाइक चेजिंग के कई सीक्वेंस दर्शकों को रोमांचित करते हैं। लोकेशन और विजुअल इफेक्ट्स भी बहुत शानदार हैं।

अभिनय
आमिर खान ने फिल्म में पूरी तरह से चौंकाया है। एक्शन और स्टंट करते हुए वह काफी जमे हैं। इसके अलावा भावनात्मक दृश्यों में भी उन्होंने अपनी अदाकारी का जादू चलाया है। कटरीना कैफ खूबसूरत लगी हैं। बाकी उनके पास ज्यादा कुछ करने के लिए था ही नहीं। वहीं अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा वही करते रहते हैं जो धूम सिरीज की पिछली दो फिल्मों में कर रहे थे।

गीत-संगीत
फिल्म का गीत-संगीत बहुत दमदार तो नहीं है, लेकिन गानों की पिक्चराइजेशन अच्छी है। गानों की कोरियोग्राफी भी काफी अच्छी की गई है। कमली-कमली और मलंग बाकी गानों की तुलना में बेहतर हैं।

फाइनल पंच
धूम-3 के साथ दर्शक साल का अंत धूम-धाम से कर सकते हैं। फैमिली एंटरनेटमेंट की कसौटी पर भी यह खरी उतरती है। 

Sunday, December 15, 2013

कुछ नहीं है सनी लियोनी के 'जैकपॉट' में

1 स्टार
फिल्म 'जैकपॉट' पहले ही घंटे में फिल्म इतना पकाती है कि कई दर्शक सिनेमाहॉल छोड़कर निकल जाते हैं। अफसोस, अपन तो यह भी नहीं कर सकते थे, वर्ना यह यह रिव्यू कौन लिखता? फिल्म देखते हुए लगता है निर्देशक कैजाद गुस्ताद यह भूल गए थे कि मनोरंजन नाम की भी कोई चीज होती है। थ्रिलर और सस्पेंस फिल्म होने का दावा करने वाली जैकपॉट किसी धारावाहिक का नीरस एपिसोड लगता है, बल्कि वह भी इससे ज्यादा मनोरंजक हो सकता है।
फिल्म की कहानी है बॉस (नसीरुद्दीन शाह) की। वह गोवा में एक कसीनो का मालिक है। बॉस फ्रांसिस (सचिन जोशी), माया (सनी लियोनी), एंथनी (भरत निवास) और कीर्ति (एल्विस) के साथ अपने ही कसीनो में गलत ढंग से पांच करोड़ रुपए का जैकपॉट जीते की साजिश रचता है। बाद में इसी साजिश में साजिशों का सिलसिला चल पड़ता है और सब एक-दूसरे पर शक करने लगते हैं।


निर्देशक और लेखक कैजाद गुस्ताद ने क्या सोचकर यह फिल्म बनाई, कुछ समझ में नहीं आता। शुरू से ही फिल्म में झोल ही झोल हैं। स्क्रिप्ट इतनी उलझी हुई है कि दर्शक लगातार कंफ्यूज रहते हैं। समझ में ही नहीं आता कि कहानी किस दिशा में जा रही है। फिल्म में इतने ज्यादा फ्लैशबैक हैं कि दर्शक फिल्म से जुड़ ही नहीं पाता। कोई भी प्लॉट दर्शकों को न तो चौंका पाता है और न ही हैरान करता है।


फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है। यह लालच, धोखाधड़ी और दोस्ती में दगाबाजी के पुराने फॉर्मूलों पर आधारित है। इस तरह की कहानी पर हम जाने कितनी फिल्में देख चुके हैं।


फिल्म में थोड़ा बहुत जो अभिनय नजर आता है, वह नसीरुद््दीन शाह की बदौलत है। बाकी सनी लियोनी क्यों बॉलीवुड फिल्मों में आ गईं, ये तो वही जानें। उनसे अभिनय की कोई उम्मीद नहीं थी और वह कोई उम्मीद जगाती भी नहीं। हां, जिस्म की नुमाइश में कसर बाकी नहीं रखतीं। सचिन जोशी और अन्य कलाकार भी कुछ खास नहीं कर पाए हैं।


फिल्म का यही एक पक्ष है जो थोड़ा बेहतर है। खासतौर पर अरिजीत सिंह की आवाज में कभी जो बादल बरसे गाना कानों को सुकून दे जाता है।


अगर आप यह सोचकर जा रहे हैं कि आपके हाथ कोई बड़ा जैकपॉट लगेगा, तो बिल्कुल मत जाइए। हां, सनी लियोनी के बहुत बड़े फैन हैं तो शौक से जाइए।

Friday, December 13, 2013

धत तेरी की गाने वाला 'सनम'

एसक्यूएस प्रोजेक्ट बैंड के बाद गोरी तेरे प्यार से बॉलीवुड में अपनी आवाज पहुंचा रहे हैं गायक सनम पुरी

इन दिनों फिल्म 'गोरी तेरे प्यार में' का गाना 'धत तेरी की' युवाओं को खासा लुभा रहा है। इसे आवाज दी है सनम पुरी ने। सनम का नाम अभी तक उनके बैंड 'एसक्यूएस प्रोजेक्ट'  और अलबमों 'एसक्यूएस सुपरस्टार' और 'समर सनम' के लिए जाना जाता है। अब 'धत तेरी की' के साथ सनम ने बॉलीवुड की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। सनम से बात करना काफी मजेदार रहा। वह बिल्कुल हंसते-मुस्कुराते हुए बातें करते हैं और बेलौस अंदाज में जवाब देते हैं। पेश हैं सनम के साथ टेलीफोन पर हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश...

- 'धत तेरी की' गाना कैसे मिला?
- हमारे मैनेजर हैं बेन थॉमस। उन्होंने विशाल-शेखर के लिए हमारे अलबम एसक्यूएस सुपरस्टार का गाना तेरी आंखों से प्

- बैंड से बॉलीवुड तक का सफर कैसा रहा?
- काफी अच्छा सफर रहा। करीब ३ साल पहले हमारा पहला अलबम आया था। तब से अब तक काफी अच्छा रहा है सबकुछ।

- बतौर गायक कहां कंफर्टेबल पाते हैं खुद को, बैंड में या बॉलीवुड में?
- निश्चित तौर पर बैंड में। यहां हमारे पास पूरी आजादी होती है। गाने में हेरफेर करने या फिर ट्यून में बदलाव और उसका अंदाज तय करने में। बॉलीवुड में ऐसा होना मुश्किल है, क्योंकि वहां हम किसी के अंडर में काम कर रहे होते हैं। जो फिल्म के डायरेक्टर-प्रोड्यूसर को पसंद आता है बस उसी के मुताबिक काम करना पड़ता है।

- किसी सिंगर के लिए फिल्मों में गाना क्यों जरूरी हो गया है?
- जरूरी तो नहीं, लेकिन इसे जरूरी बना दिया गया है। नाम, पहचान, शोहरत सब फिल्मों में गाने के बाद ही मिलती है। इसलिए लोग एक या दो अलबम निकालने के बाद फिल्मों में काम की तलाश में लग जाते हैं।

- अगर फिल्मों में काम मिलने लगेगा तो क्या बैंड बंद कर देंगे?
-बिल्कुल नहीं। फिल्मों में काम तो पता नहीं कितना और कब तक मिलेगा, लेकिन बैंड तो जिंदगी भर साथ देगा।

- तो क्या यह शुरू से तय था कि म्यूजिक की ही फील्ड में जाना है?
- बिल्कुल! मैं पैदा ही इसीके लिए हुआ हूं। छह साल की उम्र से ही गाने लगा था।

-आपके लिए म्यूजिक क्या है?
म्यूजिक से मुझे पैसा और शोहरत नहीं कमानी है। म्यूजिक से मुझे लोगों को खुश करना है।

- कौन से सिंगर्स पसंद हैं?
- सभी सिंगर्स को सुनना अच्छा लगता है। आखिर सभी मेहनत करते हैं, तो हमें सभी का सम्मान करना चाहिए।

- कभी किसी से इंस्पायर हुए?
- नहीं, कभी नहीं। मेरी इंस्पिरेशन मेरा भाई समर ही है। असल में मैं गाने ज्यादा सुनता नहीं हूं। इसके बजाए मैं ऑर्केस्ट्रा म्यूजिक सुनना पसंद करता हूं।

- आपके भाई समर आपसे छोटे हैं या बड़े?
- समर मुझसे दो साल बड़े हैं।

-दोनों के बीच क्या काम बंटा हुआ है?
-नहीं, ऐसा कुछ नहीं। आपस में डिस्कस करते रहते हैं। बस उनकी लिखने पर पकड़ थोड़ी अच्छी है तो वे गाने लिखते हैं। बाद में मैं उसकी धुन तैयार करता हूं।

- आगे क्या करने का इरादा है?
- बहुत कुछ करना है। गाना तो चलता ही रहेगा, साथ ही फिल्मों में म्यूजिक भी देना है। एेक्टिंग के बारे में भी सोचा है, लेकिन पहली प्रियॉरिटी म्यूजिक ही रहेगी।
ले किया। इसे सुनने के बाद विशाल-शेखर ने मुझे मिलने के लिए बुलाया। हमने उनके सामने कुछ गाने गुनगुनाए। यह विशाल-शेखर को काफी पसंद आ गए और उन्होंने तय किया कि हम लोग साथ काम करेंगे। इस तरह यह गाना मुझे मिला।

Saturday, December 7, 2013

प्रभुदेवा का रद्दी राजकुमार!

दो स्टार
प्रभुदेवा ने वॉन्टेड फिल्म के साथ बॉलीवुड में साउथ का तड़का लगाने की शुरुआत की। अब इसी अंदाज को वह एक बार फिर लेकर आए हैं फिल्म 'र... राजकुमार' के साथ। अब उन्हें कौन समझाए कि एक ही मसाला बार-बार परोसोगे तो ओवरडोज हो जाएगी।

फिल्म में शाहिद कपूर बने हैं रोमियो राजकुमार। राजकुमार किसी अंधेरी रात में एक गांव में पहुंच जाता है। वहां शिवराज (सोनू सूद) और परमार (आशीष विद्यार्थी) की दुश्मनी के चलते हालात बहुत खराब हैं। यहां पर राजकुमार को चंदा (सोनाक्षी सिन्हा) से प्यार हो जाता है। वहीं शिवराज भी चंदा को चाहता है। चंदा का प्यार पाने के लिए राजकुमार को क्या-क्या करना पड़ता है, यही फिल्म में दिखाया गया है।

प्रभुदेवा के स्टाइल में कुछ भी नया नहीं है। वही तीखा मसाला, तगड़ा एक्शन और कानफोड़ू संगीत। इन सबके चक्कर में कहानी की जमकर बैंड बजी है। फिल्म में गाने भी इतने ज्यादा हैं कि बची-खुची कहानी का भी दम घोंट जाते हैं।
साफ नजर आने लगा है कि प्रभुदेवा अपने ही फॉर्मूले के शिकार हो गए हैं। साउथ के स्टाइल में फिल्म को पेश करने के उनके अंदाज से अब दर्शक उकताने लगे हैं। शुरू के कुछ दृश्य जरूर फनी हैं, लेकिन इतने नहीं कि उनके लिए पूरी फिल्म देखी जाए। शाहिद का बार-बार किस के लिए मुंह बनाना भी इरिटेट करने लगता था। लॉजिक या दिमाग लगाने की बिल्कुल जरूरत नहीं। आलम यह है कि हीरो सिर्फ पैर हिलाता है और आठ-दस विलेन एक साथ हवा में उड़ जाते हैं। वहीं अकेले 60-65 लोगों को शाहिद को मारते देखना भी हजम नहीं होता।

जहां तक अभिनय की बात है तो यही एक चीज है जो फिल्म में नजर आती है। चाहे वह शाहिद कपूर हों या फिर सोनू सूद और आशीष विद्यार्थी, सभी ने अपनी तरफ से बेहतरीन कोशिश की है। कुछ दृश्यों में शाहिद ने इतना अच्छा अभिनय किया है कि उन्हें दाद देने को दिल करता है। हालांकि सोनाक्षी सिन्हा इसमें काफी पिछड़ी हुई हैं। सोनाक्षी को अब अपने अभिनय को कुछ नए रंग देने होंगे, अन्यथा लोग लुटेरा में उनके बेहतरीन काम को तुक्का ही मानेंगे। डायलॉग्स में भी कुछ नया नहीं है। हां, मध्य प्रदेश और गुजरात की लोकेशन को जरूर कैमरे ने अच्छे से कैद किया है।

इस फिल्म से भी काफी उम्मीदें थीं। खासतौर पर शाहिद कपूर और सोनाक्षी दोनों ने इसके जरिए अपने करियर में नई उछाल की संभावनाएं देखी होंगी, लेकिन अफसोस कि सभी को नाउम्मीद होना पड़ता है। फिल्म में हिंसा के दृश्य भी काफी ज्यादा हैं।

Monday, November 11, 2013

बासी कढ़ी कब तक उबालोगे रामू अंकल!

सत्या-2, डेढ़ स्टार
1998 में रामगोपाल वर्मा की फिल्म आई थी सत्या। इसने बॉलीवुड में गैंगस्टर आधारित फिल्मों के लिए एक नया ट्रेंड सेट किया। अब 2013 में रामू सत्या-2 लेकर आए हैं। पहली फिल्म की तुलना में यह फिल्म किसी त्रासदी की तरह है।
पिछली फिल्म की तरह इस बार भी मुंबई में सत्या (पुनीत सिंह रत्न) नाम का एक शख्स आता है। वह कौन है, कहां से आया है, उसका अतीत क्या है कोई नहीं जानता। वह अपने एक दोस्त नारा (अमृतायन) के यहां रुकता है और इसी बीच उसकी मुलाकात एक बड़े आदमी से होती है, जो उसे काम देता है। यहीं से सत्या अपने शातिर दिमाग का इस्तेमाल कर मुंबई पर राज करने के मिशन में लग जाता है। अपने मकसद में कामयाब होने के लिए वह खून बहाने से भी नहीं कतराता। क्या सत्या अपने मकसद में कामयाब होता है, यही फिल्म में बताया गया है।

लचर पटकथा
फिल्म की कहानी उलझी हुई और पटकथा बेहद लचर है। असल में इसमें तमाम आजमाए हुए फिल्मी फॉर्मूले हैं। फिल्म का हीरो अपनी कंपनी खड़ी कर मुंबई समेत पूरे राज्य पर राज करना चाहता है, लेकिन वह दिल का बेहद अच्छा है। गरीबों का मददगार है। हीरो सिस्टम के खिलाफ है। वह सरकारी अधिकारी को अच्छा-खास लेक्चर भी देता है। अमीरों को लूटता है और गरीबों में बांटता है, वगैरह। लॉजिक के लेवल पर भी ढेरों गलतियां है, कुछेक पर गौर फरमाएं हीरो अपने शहर से किसी को मारकर भागा था, लेकिन वहां की पुलिस उसे एक बार भी तलाश करने की कोशिश नहीं करती। साथ मुंबई पुलिस को इतना लाचार दिखाया गया है कि हंसी आती है। बिजनेसमैन से लेकर, पत्रकार, मुख्यमंत्री इतनी आसानी से मार दिए जाते हैं मानो कोई बाग से आम तोड़कर ले जा रहा हो।

अनजाने चेहरे
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसमें कोई भी जाना-पहचाना चेहरा नहीं है। एकमात्र चेहरा जिसे दर्शक थोड़ा पहचान सकते हैं, वह हैं महेश ठाकुर। फिल्म की दो हीरोइनें- अनाइका और आराधना गुप्ता, महज शो-पीस के तौर पर हैं। फिल्म में गाने अच्छे भी नहीं हैं और अनावश्यक ढंग से आकर फिल्म की रफ्तार रोकते हैं। अगर कुछ अच्छा है तो वह है सिनेमैटोग्राफी, वीएफएक्स का अच्छा इस्तेमाल दृश्यों को खूबसूरत बनाता है। मगर दर्शक सिर्फ सिनेमैटोग्राफी देखने तो जाएंगे नहीं। बहरहाल, मुख्य भूमिका में पुनीत सिंह रत्न ने जरूर बढि़या कोशिश की है। क्राइम फिल्मों में डायलॉग काफी मायने रखते हैं, लेकिन यहां डायलॉग भी दमदार नहीं हैं।

फाइनल पंच
कुल मिलाकर सत्या-२ वह कढ़ी है, जिसे रामगोपाल वर्मा समेत जाने कितने लोग उबाल चुके हैं। फिल्म का क्राइम बैकग्राउंड और ढेरों गालियां इसे फैमिली क्लास से दूर करती हैं। सत्या-2


के कमजोर होने का पूरा फायदा क्रिश-३ को मिलेगा, जो कि फैमिली एंटरटेनमेंट की कसौटी पर खरी उतरती है।

Tuesday, November 5, 2013

टेक्नोलॉजी और इमोशन का कॉम्बो क्रिश-3

साढ़े तीन स्टार
बेहतरीन टेक्नोलॉजी से रचे गाफिक्स दृश्य। हैरतअंगेज ताकतों से लबरेज सुपरहीरो और सुपरविलेन। बढिय़ा स्टंट सीन और ढेर सारे इमोशंस का तड़का। यह है क्रिश-३, भारतीय सुपरहीरो की सिरीज में नई पेशकश। इसमें बहुत कुछ ऐसा है जो अभी तक की भारतीय फिल्मों में नहीं दिखा है। फिल्म कोई मिल गया और क्रिश की कहानी को आगे बढ़ाती है।

कृष्णा अपने पापा रोहित (रितिक रोशन दोहरी भूमिका में) को डॉक्टर आर्या से बचाकर लाता है। इसके बाद वह अपनी पत्नी प्रिया (प्रियंका चोपड़ा) के साथ मुंबई में रहने लगता है। प्रिया टीवी जर्नलिस्ट है और कृष्णा किसी नौकरी में टिक नहीं पाता। वजह, जब भी कोई मुसीबत में फंसता है, वह ड्यूटी छोड़कर उसे बचाने चला जाता है। लोग उसकी सच्चाई से अनजान हैं, इसलिए उसे बार-बार नौकरी से निकाला जाता है। वहीं मुंबई से काफी दूर काल (विवेक ओबरॉय) अपनी ताकतों का बेजा इस्तेमाल कर मानवों और जानवरों के डीएनए से नई प्रजाति मानवर तैयार कर रहा है। उसके साथ है काया (कंगना राणावत) अपने प्रोजेक्ट के लिए पैसा जुटाने के मकसद से वह अलग-अलग देशों में खतरनाक बीमारियां फैलाता है। इसी कड़ी में उसका हमला भारत पर भी होता है, लेकिन क्या क्रिश उसके मंसूबों को कामयाब होने देगा? यही फिल्म की आगे की कहानी है।


ऐसे तो फिल्म की स्क्रीनप्ले में ढेरों खामियां हैं, लेकिन तकनीक और एक्शन से उन्हें ढंकने की कामयाब कोशिश की गई है। पर्दे पर दृश्यों का प्रस्तुतिकरण और विश्वसनीय है कि यह हैरान कर देता है। सबसे खास बात है कि फिल्म की रफ्तार कहीं धीमी नहीं पडऩे दी गई है। इस वजह से दर्शक अपनी सीट से हिल भी नहीं पाता। सुपरविलेन काल को जिस तरह से पेश किया गया है, वह निश्चित तौर पर सराहनीय है। सिनेमैटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर भी अच्छा है। फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है अभिनय। रितिक ने अपनी भूमिका में जान डाल दी है। बाप और बेटे की भूमिका निभाते हुए आप उनमें अंतर नहीं कर सकते। काल के रोल में विवेक ने एक नई शुरुआत की है। उनकी डायलॉग डिलीवरी और चेहरे के भाव लाजवाब हैं। वहीं प्रियंका ने भी मिले मौकों को जाया नहीं किया है, जबकि काया के रोल में कंगना अपने अभिनय के एक नए पहलू से परिचित कराती हैं।


इन सारी बातों के बावजूद यह नहीं कह सकते कि फिल्म में कमजोरियां नहीं हैं। कई पुराने फिल्मी फॉर्मूलों का इस्तेमाल किया गया है। जैसे- विलेन द्वारा हिरोइन का अपहरण। बेटे के लिए बाप की कुर्बानी। अच्छा बेटा-बुरा बेटा, वगैरह। इसके अलावा फिल्म कई दृश्यों को देखते हुए हॉलीवुड की कुछ साई-फाई फिल्मों की याद आती है। मसलन, विवेक का किरदार एक मशहूर हॉलीवुड सिरीज के किरदार की याद दिलाता है। रितिक जिस तरह तार से झूल रहे बच्चे को बचाता है उसे देखकर शक्तिमान सीरियल की याद आती है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है, इसके गाने। हालांकि इन्हें बेहद खूबसूरती से पिक्चराइज किया गया है, लेकिन न संगीत में दम है और न गीत में। 


इस फिल्म की सबसे खास बात है कि यह फैमिली एंटरटेनमेंट की कसौटी पर खरी उतरती है। पहले से ही क्रिश के फैन बच्चों को यह फिल्म खासतौर से पसंद आएगी। 

Tuesday, October 29, 2013

कॉमेडी कम सस्पेंस-थ्रिलर वाला 'मिकी वायरस' !

Print
ढाई स्टार एक ऐसे वक्त में जब डबल मीनिंग डायलॉग्स और अश्लील चुटकुलों से सिनेमा में हास्य पैदा करने की कोशिश की जा रही है, मिकी वायरस टेक्नोलॉजी से हंसाने की कोशिश करती है। हालांकि एक सच यह भी है कि आंशिक रूप से ही सही, इस फिल्म में भी डबल मीनिंग डायलॉग्स हैं। फिल्म की कहानी है मिकी अरोड़ा नाम (मनीष पॉल) के युवक की। वह हैकर है और खाता-पीता अपनी दुनिया में मस्त है। उसकी दोस्ती भी एेसे ही बंदों है, जो हर वक्त कंप्यूटर की दुनिया में रहते हैं। इसी दौरान दिल्ली में कुछ हैकर्स की मौत हो जाती है। इस केस को सुलझाने के लिए एसएसपी सिद्धांत मिकी की मदद लेता है।

 इसी दौरान मिकी की जिंदगी में एक लड़की कामायनी (एली अवराम) आ जाती है। मिकी पुलिस की मदद कर रहा होता है, तभी एली की मौत हो जाती है। इसके बाद कई गुत्थियां मिकी के सामने आती हैं जिन्हें वह सुलझाता है। फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले अच्छे हैं। लेखक-निर्देशक सौरभ वर्मा ने अच्छा काम किया है। फिल्म हालांकि सिंगल ट्रैक पर चलती है, लेकिन ट्विस्ट और टन्र्स इसकी रोचकता बनाए रखते हैं। हालांकि पहले हाफ में कुछ सीन थोड़े उबाऊ लग सकते हैं, लेकिन दूसरे पार्ट में उन दृश्यों का महत्व समझ में आता है। फिल्म के पहले हॉफ के मुकाबले दूसरा हॉफ ज्यादा बेहतर है। यहां कहानी तेजी से भागती है और दर्शकों के सामने चौंकाने वाले राज खुलते हैं। मनीष पॉल ने मिकी के रूप में अच्छा अभिनय किया है। उन्हें देखकर कहीं से नहीं लगता कि उनकी यह पहली फिल्म है। टीवी होस्ट के तौर पर कैमरे से उनका पुराना याराना यहां उनके खूब काम आया है। वहीं इंस्पेक्टर भल्ला के रूप में वरुण बडोला ने अच्छा काम किया है।

मिकी की दोस्त चटनी के रूप में पूजा गुप्ता ने अपनी शरारतों से गुदगुदाने में कामयाबी हासिल की है। वहीं एली अवराम ने भी इस मौके को जाया नहीं किया है। हालांकि उनका रोल फिल्म के अंत तक तो नहीं रहता, लेकिन वह याद रहती हैं। पूरी फिल्म दिल्ली में शूट की गई है। यहां का माहौल कैमरे ने अच्छे से कैप्चर किया है। डायलॉग्स में दिल्ली में बोले जाने वाली भाषा और यूथ की लैंग्वेज इसे युवाओं के और करीब ले जाएगी। हालांकि अगर आप यह सोचकर जा रहे हैं कि मिकी वायरस प्योर कॉमेडी फिल्म है तो आपको निराशा होगी। इसमें कॉमेडी कम और सस्पेंस-थ्रिलर ज्यादा है। दूसरी चीज, फिल्म थोड़ी सी टेक्निकल है। सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर, एन्क्रिप्ट, हैकिंग जैसे शब्दों से जिसका पाला न पड़ा हो, उसके लिए समझना मुश्किल होगी। युवाओं को ध्यान में रखकर बनाई है, इसलिए उन्हें पसंद आ सकती है।

Saturday, October 19, 2013

अभी हमें कई और 'शाहिद' चाहिए

4 स्टार
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रासंगिकता के लिहाज से समय की सीमा से परे होते हैं। एक ऐसी ही शख्सियत थे शाहिद आजमी। मात्र 32 साल की उम्र में उस शख्स ने जिंदगी के कई रंग देख लिए थे। पेशे से वकील शाहिद की 2010 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। उनकी जिंदगी को परदे पर लेकर आए हैं हंसल मेहता, फिल्म 'शाहिद' में। कई फिल्म समारोहों में धूम मचाने और तारीफें बटोरने के बाद यह फिल्म अब सिनेमाघरों में लग चुकी है। फिल्म देखकर अहसास होता है कि हमें अभी और 'शाहिद' की जरूरत है, न सिर्फ फिल्म के तौर पर, बल्कि समाज में एक शख्सियत के तौर पर भी।


'शाहिद' कहानी है एक युवा की, जो आतंकवाद के झूठे मुकदमे में फंसे लोगों के केस लड़ता है। वजह, उसने खुद आतंकवादी होने के झूठ का दर्द भुगता है। नाजुक सी उम्र में वह आतंकियों के हत्थे चढ़ जाता है। कश्मीर में उसे आतंकी शिविर में ट्रेनिंग दी जाती है। वहां से किसी तरह भागकर वह मुंबई अपने घर पहुंचता है। घरवाले खुश हो जाते हैं, लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं होता कि शाहिद का आना खुशी नहीं, मुसीबत का पैगाम है। आगे की कहानी शाहिद के ऊपर आतंकी होने के इल्जाम, उसकी सजा और फिर आतंक के झूठे मुकदमे में फंसे लोगों को छुड़ाने की मुहिम की है।


निर्देशक हंसल मेहता ने बहुत बारीक छानबीन के बाद शाहिद फिल्म बनाई है। वह पूरी तरह से बधाई के पात्र हैं। किसी की जिंदगी को परदे पर उतारना बेहद कठिन होता है, लेकिन शाहिद इस मामले में लाजवाब है। दृश्यों की बुनावट और उन्हें पेश करने का अंदाज उम्दा है। जेल के दृश्य, कोर्ट रूम के दृश्य, शाहिद के संघर्ष के दृश्य, सभी बेहद खूबसूरती से उभरे हैं। कैमरा एंगल के साथ भी सफल प्रयोग किए गए हैं। शाहिद की निजी जिंदगी के दोहरावों को भी बखूबी दर्शाया गया है।


राजकुमार यादव ने अभिनय की नई रेंज बना डाली है। वह शाहिद के रोल में पूरी तरह छा गए हैं। छोटी-छोटी भूमिकाओं में केके मेनन, तिग्मांशु धूलिया भी अपना असर डालते हैं। शाहिद की मां की भूमिका में बलजिंदर कौर, शाहिद के भाई बने मोहम्मद जीशान अयूब और उनकी पत्नी का रोल करने वाली प्रभलीन संधू, इस फिल्म के निहायत जरूरी हिस्से की तरह हैं।


आतंकवाद ने पूरी दुनिया को न भुलाने वाले जख्म दिए हैं। इसी के साथ इसने उन परिवारों को भी पीड़ा दी है, जिनके बच्चे आतंकवादी होने के झूठे मुकदमों में फंसा दिया गया। आज भी ऐसे बहुत से मामले मिल जाएंगे। बहरहाल, इस लाजवाब फिल्म को देखना तो बनता है भाई!

Saturday, October 12, 2013

रणक्षेत्र में हंसी की फुहार, वॉर छोड़ ना यार!

3 स्टार
हर किसी की दिलचस्पी होती है कि आखिर भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर क्या होता होगा? अभी तक कई फिल्मों में सीमा के हालात दिखाए गए हैं। अब लेखक-निर्देशक फराज हैदर इसी हालात को 'वॉर छोड़ ना यार' फिल्म में नए अंदाज में लेकर आए हैं। सीमा पर जवान, दोनों देशों की राजनीति, विदेशी हस्तक्षेप और मीडिया के रोल में कॉमेडी का तड़का लगाकर फराज ने काफी अच्छी कोशिश की है।
फिल्म में दिखाया गया है कि एक तरफ दोनों देशों की सियासत हमेशा यह दिखाने की कोशिश करती रहती है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध बेहद पेचीदा हैं। वहीं सीमा पर दोनों देशों के जवान एक दूसरे के साथ अंत्याक्षरी खेलने और हंसी-मजाक में लगे रहते हैं। दोनों देशों के बीच तनाव का फायदा उठाकर अमेरिका और चीन इनमें युद्ध करवाना चाहते हैं।


फिल्म की कहानी और विषय में ताजगी है। हालांकि फराज अपनी यही काबिलियत निर्देशन में नहीं दोहरा पाते। फिल्म में कुछ दृश्य तो हंसी से भरपूर हैं, लेकिन कुछ जगहों पर कसावट की कमी साफ महसूस होती है। फिल्म में चीनी पदार्थों के बायकॉट का सीन जोडऩे का कोई तुक समझ नहीं आता। यह सिर्फ फिल्म की दिशा भटकाता है।
हालांकि उन्हें शुक्रगुजार होना चाहिए अपने अभिनेताओं का। भारतीय सेना के कैप्टन राज की भूमिका शरमन जोशी ने बेहद अच्छे से निभाई है। वहीं पाकिस्तानी आर्मी के कैप्टन कुरैशी के रोल में जावेद जाफरी भी अच्छे रहे हैं। दलीप ताहिल ने फिल्म में तिहरा रोल किया है। हालांकि सब पर भारी हैं पाकिस्तानी कमांडर बने संजय मिश्रा। वह जिस भी सीन में आते हैं छा जाते हैं। जर्नलिस्ट के रोल में सोहा अली खान भी ठीक हैं।


फिल्म में हास्य की फुहार तो है ही, साथ ही व्यंग्य का करारा वार भी किया गया है। पाकिस्तानी सिपाहियों में खाने को लेकर होने वाली तकरार, उन्हें मिलने वाले चीनी हथियारों का मौके पर फेल हो जाना, चीन और अमेरिका की बेवजह दखअंदाजी और दोनों देशों की कमजोर सियासत पर खूब चुटकी ली गई है। गीत और संगीत की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी और न ही यह प्रभावी हैं। फिल्म के डायलॉग थोड़े और क्रिस्पी होते तो मजा बढ़ जाता।

(
  न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)

Saturday, September 28, 2013

इस 'वॉर्निंग' से क्या संभलना!

2 स्टार
अक्सर थ्रिलर फिल्मों में दिखाया जाता है कि कुछ दोस्त साथ मस्ती करने निकलते हैं और वे मुसीबत में फंस जाते हैं। कभी टापू पर, कभी किसी भूतिया महल में तो कभी जंगल में। वॉर्निंग फिल्म में भी ऐसा ही कुछ होता है। सात दोस्त कई साल के बाद मिलते हैं। सभी मिलकर यॉट पर समुंदर की सैर करने की योजना बनाते हैं।

सात दोस्तों के अलावा याट पर एक छोटी सी बच्ची भी है, जिसका जन्मदिन वहां मनाया जाना है। सभी मस्ती कर रहे होते हैं कि अचानक एक हादसा होता है और सभी दोस्त एक के बाद अपनी जान गंवाते चले जाते हैं और आखिर में दो दोस्त बचते हैं।

फिल्म थ्रिलर है और थ्रीडी में है। इसके बावजूद यह रोमांच का अहसास नहीं जगा पाती। हालांकि निर्देशक ने पूरी कोशिश की है। फिल्म में ड्रामा और सस्पेंस की डोज डालने की पूरी कोशिश की है, लेकिन वे दर्शकों को चौंका नहीं पाते हैं। कुछ मामलों में तो पुराने फिल्मी फॉर्मूलों का ही इस्तेमाल कर लिया गया है।

दोस्तों की टोली, एक दोस्त का बेहद शरारती होना, एक और दोस्त का अतिमहत्वाकांक्षी होना और उसी की वजह से सबका मुसीबत में फंसना। यह चीजें हम पहले भी कई बार देख चुके हैं। हां, फिल्म में इस लिहाज से नयापन है कि पूरी फिल्म की शूटिंग समंदर में की गई है।

जहां तक अभिनय की बात है तो किसी के पास भी करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं था। फिल्म पहले कुछ वक्त तक हल्के-फुल्के मूड में रहती है। इसके बाद फिर थ्रिलिंग पार्ट शुरू हो जाता है। ऐसे में सभी अभिनेताओं को लगभग प्रेडिक्टेबल अभिनय ही करना था। फिर भी सीमित मौकों के बीच सबने कुछ न कुछ करने की कोशिश की है।

समुंदर के अंदर शूट की गई फिल्म देखना चाहते हैं और समंदर में भीगी हसीनाएं देखना चाहते हैं तो आपके सामने यह फिल्म एक विकल्प हो सकती है। बाकी अगर बहुत ज्यादा उम्मीदें लेकर जा रहे हैं तो फिर आपकी उम्मीदों पर समंदर का पानी भी फिर सकता है।

Wednesday, September 25, 2013

इंसानी फितरतों और फरेबों का लंचबॉक्स

अपनी तमाम खूबियों से इतर लंचबॉक्स इंसानी फितरतों और फरेबों का लेखा-जोखा भी खूब अच्छे से पेश करती है। इसके सभी पात्रों की एक सी ही फितरत है। वह कुछ न कुछ छुपा रहा होता है। चाहे साजन फर्नांडिस हो, इला हो या फिर असलम शेख। हर किसी के अपने दर्द हैं, गम हैं और परेशानियां भी हैं, लेकिन साथ ही साथ उनका एक झूठ भी है। एक छल, एक फरेब की दुनिया रचते हैं ये सभी।

इला
शुरुआत इला से ही कर लेते हैं। पति को मनाने की कोशिश में जायकेदार खाना बनाती हैं। पेट के रास्ते दिल तक पहुंचने का जरिया तलाशती है। टिफिन खाली वापस आता है तो इला खुश होती है, लेकिन रात होते-होते पता चल जाता है कि गलती से टिफिन किसी और के पास पहुंच गया था। दूसरे दिन वह टिफिन वाले को रोकती नहीं। एक खत लिखकर डिब्बे में डाल देती है। फिर एक सिलसिला।
हकीकत में पति की उपेक्षा से नाखुश इला अफसाने में खुशी ढूंढने लगती है। पति से छुपा ले जाती है कि टिफिन किसी और के पास जा रहा है।

इला का पति
शायद इसकी वजह भी वाजिब है। आखिर उसका पति भी तो झूठा ही है। उसने ही इला से कहां बताया है कि उसका किसी और से अफेयर चल रहा है। वह तो इला है जो उसके कपड़ों से किसी पराई स्त्री की गंध पा लेती है। शायद इसी के बाद उसका मनोबल और बढ़ जाता है। साजन के साथ उसके खतों का सिलसिला भी। पति का फरेब, इला को फरेबी हो जाने का हौसला दे दे देता है।

असलम शेख
एक और पात्र असलम शेख, वह भी तो फरेबी ही है। नकली दस्तावेजों के आधार पर नौकरी पा लेता है। यहां भी जिसकी जगह लेनी है, उसका अटेंशन न मिलने पर खुद को अनाथ तक बता देता है। बाद में खुद ही अपनी अम्मी का जिक्र करके फंस भी जाता है। दावा करता है कि वह मेहनत करके अपने काम को पूरा सीखेगा, लेकिन गलतियों का अंबार खड़ा कर देता है।

साजन फर्नांडिस
और साजन फर्नांडिस, खुद से भागता है। दुनिया से भागता है। न किसी से मिलना न जुलना। तन्हाई का फरेब रच रखा है साजन ने। व्यक्तित्व के रूखेपन की खोल बनाकर उसमें खुद को छुपाना चाहता है। असलम को काम नहीं सिखाना चाहता। हालांकि उसकी पोल तब खुलती है, जब इला का खत उसके पास आता है। इसके बाद उसके व्यवहार में आते परिवर्तन साफ नजर आने लगते हैं। परतें खुलने लगती हैं। असलम के अनाथ होने की बात जानने के बाद वह उसके प्रति सहानुभूति से भर जाता है। उसे काम सिखाने लगता है। उसके साथ आने-जाने लगता है। अपने घर के पास खेलने वाले बच्चों से भी वह रुखाई से पेश आता है। असल में वह उनके पास जाना चाहता है, लेकिन वह खुद से खुल नहीं पाता। फरेब तो वह इला से भी करता है, जब उसे सहारे की जरूरत थी, दोस्त की जरूरत थी, उसे छोड़कर चला जाता है। वापस भी आता है तो तब, जब इस बात की गारंटी नहीं होती कि इला मिलेगी भी या नहीं।

Saturday, September 21, 2013

शाहिद फाड़ नहीं पाए पोस्टर!

दो स्टार
इन दिनों शाहिद कपूर अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। फिल्म कमीने के बाद उन्हें एक अदद हिट की तलाश है, लेकिन लगता है यह तलाश आसानी से पूरी होने वाली नहीं है। उनकी नवीनतम फिल्म फटा पोस्टर निकला हीरो तमाम अपेक्षाओं के बीच अपने लक्ष्य से पूरी तरह भटकती नजर आती है।


फिल्म की कहानी कुछ यूं है कि हीरो की मां उसे ईमानदार पुलिसवाला बनाना चाहती है, लेकिन हीरो तो फिल्मी हीरो बनना चाहता है। वह गुंडों को उड़-उड़कर मारता है, लेकिन न माथे पर पसीना आता है, न हेयरस्टाइल बिगड़ती है। हीरो की मां अस्पताल में भर्ती और हीरो जोक्स मार रहा है। इसके अलावा फिल्म में पांच मिनट के लिए सलमान खान भी हैं। राजकुमार संतोषी की ताजा पेशकश 'फटा पोस्टर निकला हीरो' की यह झलकियां हैं। फिल्म कॉमेडी के तौर पर प्रचारित की गई है, लेकिन आधे से ज्यादा फिल्म मारधाड़, रोमांस और इमोशन में ही खत्म हो जाती है। फिल्म में कॉमेडी पंचेस की जबर्दस्त कमी है।


पहले सवा घंटे में फिल्म हंसाने की थोड़ी कोशिश करती है। कुछ दृश्य अच्छे भी बने हैं, लेकिन हॉफ टाइम के बाद फिल्म को झेलना मुश्किल होने लगता है। तमाम आजमाए हुए पुराने फिल्मी फॉर्मूले फिल्म में आने लगते हैं, मसलन हीरो का बाप बुरा, मां बेटे पर बाप की छाया नहीं पडऩे देगी वगैरह-वगैरह। इसके अलावा सेकेंड हाफ में फिल्म हद से ज्यादा इमोशनल हो जाती है। निर्देशक इसे वापस कॉमेडी के ट्रैक पर लाने की भरपूर कोशिश करते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते। कई दृश्यों में महसूस होता है कि निर्देशक ने फिल्म को अभिनेताओं के भरोसे छोड़ दिया है कि वह जैसे चाहें कर जाएं। वहीं अनायास बीच-बीच में गाने आकर फिल्म का रहा-सहा मजा भी किरकिरा कर जाते हैं।


अभिनय की बात करें तो अकेले शाहिद कपूर ने मामला संभालने की कोशिश की है। वह कई दृश्यों में फनी लगे हैं। इसके अलावा 'खाली-पीली' और 'धांटिंग नाच' गाने में भी अपने अंदाज से प्रभावित करते हैं। शाहिद की मां के रूप में पद्मिनी कोल्हापुरे ने अच्छा काम किया है। इलियाना डिक्रूज ने यह फिल्म क्यों साइन की समझ नहीं आता। वहीं अच्छे चरित्र अभिनेता जाकिर हुसैन फिल्म में पूरी तरह से जाया हो गए हैं। लगता है वह जबर्दस्ती हंसाने की कोशिश कर रहे हैं। बाकी अभिनेताओं में सौरभ शुक्ला, दर्शन जरीवाला, संजय मिश्रा और मुकेश तिवारी ने चरित्रों को अच्छे से निभाया है। फिल्म का गीत और संगीत भी दमदार नहीं है।

(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)

Tuesday, September 17, 2013

मैं बस थिएटर में रमे रहना चाहती हूं: शिल्पी मारवाह

दीपक मिश्र
कुछ वक्त पहले आई फिल्म रांझणां में आपने उन्हें अभय देओल की बहन रश्मि के रूप में देखा। जी हां, यहां बात हो रही है शिल्पी मारवाह की। दिल्ली की गलियों में नुक्कड़ नाटकों के जरिए विभिन्न मुद्दों को उठा रही शिल्पी ने बॉलीवुड फिल्म में अभिनय की शुरुआत तो कर दी है, लेकिन अभी भी वह ग्लैमर की आंच से महफूज हैं। खुद को ​थिएटर की दुनिया में ही रमाए रखना चाहती हैं। अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ पिछले 7 साल से अपनी इस दुनिया में रमी शिल्पी सामाजिक जिम्मेदारियों को लेकर पूरी तरह सचेत हैं। इस इंटरव्यू से पिछली रात उन्होंने एक नाटक किया था। इस दौरान बोले गए जोरदार डायलॉग्स का असर उनकी आवाज में साफ पता चलता है। लंबी बातचीत के दौरान वह खांसती रहती हैं, गला बैठा हुआ है, लेकिन उनका लहजा जोश से भरा हुआ है। पूरी बातचीत की कुछ खास बातें आपके लिए...

रांझणा में रोल कैसे मिला?

यह बस संयोग से हुआ। असल में सोनम कपूर को रांझणां फिल्म के लिए नुक्कड़ नाटकों की वर्कशॉप करनी थी। इसके लिए रांझणां के निर्देशक आनंद एल राय उन्हें लेकर हमारे ग्रुप अस्मिता थिएटर ग्रुप में आए थे। इसी दौरान आनंद राय ने मुझे नोटिस किया। बाद में फिल्म के लेखक हिमांशु शर्मा ने मुझसे कहा कि मेरे लिए कुछ लिख रहे हैं। इस तरह मैं इस फिल्म में आ गई।

आपका क्या रिएक्शन था?
शुरू में मैं थोड़ा पसोपेश में थी, लेकिन अरविंद गौर सर (डायरेक्टर, अस्मिता थिएटर ग्रुप) ने कहा कि अच्छा मौका मिले तो छोडऩा नहीं चाहिए। बहुत अच्छा अनुभव रहा। एक नई शुरुआत हुई।

किसी तरह की नर्वसनेस थी?

हां, पहले दिन थोड़ा नर्वस थी। अभय देओल, सोनम कपूर, धनुष सभी सिनेमा के जाने-माने लोग हैं। हालांकि यह लोग काफी को-ऑपरेटिव रहे, इसलिए सब आसान हो गया। आनंद एल राय बहुत अच्छे निर्देशक हैं। उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं नई हूं।

ऐसा नहीं लगता कि बहन के रोल से शुरुआत करके गलत किया, लीडिंग रोल से शुरुआत होती तो अच्छा रहता?
बिल्कुल नहीं। मैंने तो इसकी भी अपेक्षा नहीं की थी। बिना किसी ऑडिशन के यह रोल मिल गया। आगे के बारे में ज्यादा सोचा नहीं है। अभी तो थिएटर में ही बिजी हूं।

थिएटर और सिनेमा में क्या अंतर महसूस करती हैं?
दोनों बहुत अलग हैं। सिनेमा की पहुंच ज्यादा लोगों तक है। हालांकि थिएटर में आप दर्शक से सीधे बात कर सकते हैं। आप जो करते हैं तुरंत उसका फीडबैक मिल जाता है।

आपका थिएटर की तरफ रुझान कैसे हुआ?
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हुए स्टेज पर परफॉर्म करती रहती थी। इसी दौरान अरविंद सर कॉलेज में वर्कशॉप करने आए। वहां से मैं अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ जुड़ गई। करीब ७-८ साल हो गए।

क्या थिएटर करने के बाद फिल्मों की राह आसान हो जाती है?
काफी हद तक। आप थिएटर करते हुए बेसिक चीजें सीख जाते हो। बॉडी लैंग्वेज, आवाज का उतार-चढ़ाव वगैरह। हालांकि सिनेमा में चीजें अलग ढंग से होती हैं। वहां सेट पर कैमरा एंगल और दूसरी टेक्निकल चीजों पर ध्यान देना होता है।

कैसी होती है थिएटर आर्टिस्ट की दुनिया?
कुछ भी तय नहीं। सुबह उठने के बाद रात को सोने को मिलेगा भी नहीं, यह तय नहीं है। पैसा नहीं, खाने का वक्त मुकर्रर नहीं, दिन-रात सिर्फ काम-काम और काम। यह समझ लीजिए कि बहुत ज्यादा संघर्ष होता है। यहां कोई ग्लैमर नहीं है। एक थिएटर आर्टिस्ट को दिल, दिमाग और शरीर सबकुछ इंवॉल्व करना पड़ता है।

फिर क्या देता है थिएटर?एक जुनून, जज्बा, समर्पण। एक बेहतर इंसान बना देता है थिएटर। हमारे यहां लोग आते हैं थिएटर वर्कशॉप करने। विभिन्न पेशे से जुड़े हुए लोग, डॉक्टर, इंजीनियर। लोग जॉब करते हुए थिएटर करते हैं। वह जिंदगी को करीब से देखना चाहते हैं।

आपको फैमिली का सपोर्ट मिलता है?
मैं आठ साल की उम्र से ही इंडिपेंडेंट हूं। खुद को सपोर्ट करती आई हूं। फैमिली को चिंता रहती है, लेकिन उन्हें मेरे ऊपर भरोसा है।

आगे का क्या प्लान है?
अभी तो सिर्फ थिएटर है। हर पल, हर वक्त बस थिएटर। साथ में पढ़ाई चलती रहती है। सोशल इश्यूज को लेकर जानकारी जुटाते रहते हैं, ताकि उनपर स्ट्रीट प्ले के जरिए आवाज उठाई जा सके।
------

शिल्पी की पसंद—नापसंद

आदर्श- अरविंद गौर
सबसे मुश्किल काम- घटनाओं को देखकर अनदेखा नहीं कर पाती।

पसंदीदा फिल्में- कॉमेडी
खाने में पसंद- मां के हाथ का बना खाना

सुनना- जो भी अच्छा लगे

(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)

Saturday, September 14, 2013

बेशर्मी की हद के पार 'ग्रैंड मस्ती'

डेढ़ स्टार
क्या वाकई फिल्मों पर बाजारवाद हावी हो गया है? क्या सौ करोड़ रुपए कमाने की लालसा इस कदर हावी हो गई है कि हमें कुछ भी गंदगी परोस दी जाएगी? ऐसे कई सवाल फिल्म ग्रैंड मस्ती को देखते हुए जेहन में लगातार आते रहते हैं। साथ ही याद आती रहती हैं ऋषिकेश मुखर्जी के दौर की शुद्धतम कॉमेडी वाली फिल्में, जिन्हें देखकर हम हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते हैं।



कॉमेडी के नाम पर द्विअर्थी संवाद, अश्लीलता और नंगेपन की तमाम हदें पार हम भौंडेपन और घटियापन की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। एडल्ट कॉमेडी के नाम पर ग्रैंड मस्ती जो कॉमेडी परोसती है वह पूरी तरह से अपच है। 'जो समाज में हो रहा है वही तो फिल्मों में दिखाया जा रहा है' जैसी बातें अब बेशर्मी छुपाने का बहाना ही लगती हैं। क्या सुपर कूल हैं हम जैसी फिल्मों के सिलसिले को आगे बढ़ाती ग्रैंड मस्ती एक 'खास' दर्शक वर्ग के लिए है। कहीं न कहीं यह उस दर्शक वर्ग को संतुष्ट भी करती है।


भला कौन सा स्कूल होगा, जहां लड़कियां हमेशा बिकनी में रहती हैं? मगर इस फिल्म में ऐसा है। सिर्फ इतना ही नहीं, इस फिल्म के प्रिंसिपल की पत्नी, बहन और बेटी के नाम को बेहद गंदे तरीके उच्चारित किया जाता है। रिश्तों-नातों तक को नहीं बख्शा गया है। नहीं इस कॉलेज में एबीसीडी का ऐसा मतलब बतलाया जाता है जिसे सुनकर शर्म आती है और निर्देशक इसे अपनी काबिलियत समझता है। पुरुष और पात्रों के प्राइवेट हिस्सों को क्लोज-अप में इतने भद्दे तरीके से शूट किया गया है कि जिसका विवरण भी नहीं दिया जा सकता।


फिल्म के पहले दृश्य से ही अश्लीलता का जो खेल शुरू होता है वह पूरी फिल्म में लगातार चलता रहता है। मानो फिल्म के लेखक और निर्देशक ने मान लिया है कि डबल मीनिंग के नाम पर कुछ भी दिखाया या कहा जा सकता है। कई जगहों पर तो ऐसे दृश्य हैं कि लगता है कोई सी-ग्रेड फिल्म देख रहे हैं। पूरी फिल्म में ऐसा दिखाया गया है कि मानो औरतें सिर्फ सेक्स करने के लिए बनी हैं, या फिर कम से कम कपड़े पहनकर घूमने के लिए। लगता है कि फिल्म के निर्देशक जैसे भूल गए हैं कि ह्यूमर और चीपनेस में कोई अंतर होता है। हीरोइनों के हिस्से में अपने शरीर का जितना हो सके प्रदर्शन करना आया है तो पुरुषों के हिस्से अश्लीलता से भरे डायलॉग्स। न कहानी है, न गाने, फिल्म टोटल बकवास है।

दीपक मिश्र


Monday, September 9, 2013

नए प्रतीक गढ़ती शुद्ध देसी रोमांस

शुद्ध देसी रोमांस निश्चित तौर नए फ्लेवर की फिल्म है। रघु, गायत्री और तारा की कहानी हमारे ही आसपास से प्रेरित है। इसके साथ ही फिल्म में जिस तरह से कुछ शानदार प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है वह भी काफी अच्छा है।

खासतौर पर बाथरूम का। असल में इस फिल्म में बाथरूम को एक कैरेक्टर के तौर पर पेश किया गया है। रघु जब पहली बार शादी से भागता है तो बाथरूम का बहाना बनाकर भागता है। इसके बाद कई सीन में बाथरूम भागने का सहारा बना है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ बाथरूम को ऐसे ही दिखा दिया गया है। फिल्म देखते हुए गौर कीजिए, बाथरूम पर कुछ न कुछ लिखा है। इसके जरिए निर्देशक ने एक नई प्रतीकात्मकता का इजाद किया है। इसके अलावा टेंशन के वक्त में जब रघु गायत्री की नब्ज टटोलता है, वह भी प्रतीकात्मकता का बेहतर उदाहरण है। खासतौर पर रोमांस की प्रतीकात्मकता का

आज बहुत से युवा हैं, जो जिंदगी को एंज्वॉय करना चाहते हैं, लेकिन शर्तों में बंधकर नहीं। गर्लफ्रेंड चाहिए, उसके साथ सेक्स संबंध भी चाहिए, लेकिन जहां शादी करने की बात आती है, जिम्मेदारी उठाने की बात आती है, वह कट लेता है।

बड़े शहरों में ही नहीं, छोटे शहरों में भी ऐसे किस्से खूब सुनने को मिल जाएंगे। जहां लड़के एक नहीं, दो—दो, तीन—तीन गर्लु्फ्रेंड रखते हैं, लेकिन शादी किसी ने नहीं करना चाहते। हो सकता है कि बहुत से लोगों को यह स्टोरी हजम न हो, लेकिन समाज की एक सच्चाई ​तो दिखाती ही है शुद्ध देसी रोमांस।

Saturday, July 13, 2013

घने बादलों से ढकी शाम में

ये घने बादलों से ढकी शाम
उदास गीत की किसी धुन की तरह
जी में आता है इसे गुनगुनाउं
जी में आता है इसे किसी को सुनाउं
एबी रोड पर चलते हुए
मैं रास्तों से बात करता हूं
देखता हूं आस—पास से गुजरते चेहरों को
कोई शरमाया सा, कोई मुरझाया सा
और कोई मेहनत की चमक से चमकता हुआ।
वो देखो एक बच्चा मां की गोद में सिमटा
बाप चला रहा गाड़ी है
वो देखो महबूबा शर्माई,
आशिक ने छेड़ दिया हो जैसे
फैशन से लकदक दुनिया भी
गुलजार हो रही है सड़क पर
एक और दुनिया भी है यहीं
इस मॉल के सामने
जिसके हाथों में बस
आज पेट भर पाने की कमाई है
ये किसी एक शहर की नहीं, हर शहर की कहानी है
इसमें कुछ किस्से नए हैं
कुछ दास्तानें पुरानी हैं।

Tuesday, July 9, 2013

तुम, मैं और उदासी

कोई कविता नहीं
कोई ग़ज़ल नहीं
तुम्हारे सिवा
जिंदगी में कोई पल नहीं

फिर ये उदासी
क्यों है तारी सी
जेहन पर छाई
एक खुमारी सी

तुमसे बात कर लूं तो
शायद थोड़ा सुकून आए
मगर कर नहीं पाता
तुम्हारा ख्याल रखता हूं!

मुझे पता है, तुम्हें भी
शायद मालूम होगा
ये उलझनें क्यूं हैं
क्यूं मुझे सुकून नहीं!

सोचता हूं तुम्हें बता दूं
फिर सोचता हूं तुम क्या सोचोगी
सोचता हूं तुम खुद समझ जाओ
​फिर सोचता हूं चलो ऐसे ही सही!

Wednesday, July 3, 2013

मेरे लिए तुम सपने ही हो

लाखों बार—बार तसल्ली मांगी
बार—बार अधिकार जताया
खुद की कितनी कसमें खायीं
और खुदा को याद दिलाया
पर इतना सा ना मैं समझा
आखिर तुम तो अपने ही हो
हां, मैं सपना देख रहा हूं
मेरे लिए तुम सपने ही हो

Sunday, June 30, 2013

ज़िंदगी! इतनी मेहरबान तो नहीं।

कुछ ख्यालात से
दोबारा गुजर जाने का मन करता है
कुछ गीत, कविताएं, कहानियां
दोबारा सुनना चाहता है दिल
जिंदगी के तमाम लम्हों को
दोबारा जी लेने की कसक उठती है
कुछ यादों से बार—बार
रूबरू होने की तमन्ना होती है
मगर उफ ये ज़िंदगी!
इतनी मेहरबान तो नहीं।

Saturday, June 22, 2013

गुजर जाता हूं

गुजर जाता हूं बहुत जल्दी से तुम्हारी राह से
कि तुम फिर मिल न जाओ इसलिए कतराता हूं
तुमसे मिलने के लिए कितने बहाने करता था
तुम्हारी गली तक आने को बेकरार रहता था
एक बार, दो बार, तीन बार, चार बार
और अनगिनत बार, जाने कितनी बार
मगर अब ये​ सिलसिला टूट चुका है
तुम तो वहीं हो, पर दिल अब रूठ चुका है
अब तो 10 किलोमीटर का अतिरिक्त फासला तय कर जाता हूं
सिर्फ तुम्हारी गली से बचने के लिए
जाने कहां—कहां से गुजर जाता हूं!

Wednesday, May 1, 2013

गुडनाइट मैसेज

उस रात मैं बहुत देर तक
इंतजार करता रहा
नौ बजे, फिर साढ़े नौ
और दस बजे तक
नहीं आया
तुम्हारा गुडनाइट मैसेज
मेरा ध्यान मोबाइल पर ही लगा था
सारे रास्ते
जेब से निकालकर चेक करता रहा
घर पहुंचकर खाना खाने बैठा
मगर हाथ बार—बार मोबाइल तक पहुंच जाता
दोस्तों ने हड़काया
साले, खाना तो ठीक से खा ले!
किताब लेकर पढ़ने बैठा
और आधे घंटे में दस बार इनबॉक्स टटोला
फिर झपकी आ गई
ख्वाब में तुम्हारा एसएमएस पढ़ रहा था
मुस्कुराया और सो गया
काश, मैं ख्वाब में ही रहता
क्योंकि सुबह तक नहीं आया था
तुम्हारा कल का गुडनाइट मैसेज!

Friday, March 22, 2013

मां और स्याह रातों की यादें

जुल्म की तमाम कहानियां
खुद की आंखों से देखी हुईं
तमाम स्याह रातों में
सिसकियां, सु​बकियां
बाप के थप्पड़ों की गूंज
मां का रोते हुए रात गुजार देना
खौफ, दहशत और गुस्से से
सहमता, टूटता मेरा बालमन
सुबह होते ही मां जैसे सब भूल जाती
किचन में कलछी की खन—खन
रात में जख्मी कलाइयां
हाथ पर बने लहू के धब्बे
और मां बना रही होतीं
पिताजी की फेवरिट सब्जी
इस राज को आज तक समझ नहीं पाया
मां की सहनशीलता थी या बाप का कायरपन
आज भी जब किसी घर से
'मर्दानगी' की आवाज आती है
मैं हर बार
​अंदर तक सुलग जाता हूं।

Wednesday, March 6, 2013

क्यों हार रहे हैं कंगारू

हैदराबाद टेस्ट हारने के बाद अचानक ऑस्ट्रेलियाई टीम की क्षमताओं पर सवाल उठने लगा है। हालांकि पिछले काफी समय से टीम में उठापटक चल रही है, लेकिन इस भारतीय दौरे कंगारू जितने कमजोर दिख रहे हैं, शायद पहले कभी नहीं दिखे। कंगारुओं के भारत के प्रदर्शन को अगर हाल ही अंग्रेजों के प्रदर्शन की रोशनी में रखकर देखें तो यह सवाल और मौजूं हो जाता है।  इंग्लैंड की टीम भारत को भारत की धरती पर पटखनी देकर गई थी।

एक विजेता की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि वह अपने विपक्षी की ताकत को ही उसकी कमजोरी बना दे। इंग्लैंड की टीम ने यही किया था। 'स्पिन का तोड़ स्पिन' के फॉर्मूले को अपनाकर अंग्रेजों ने भारत को बेबस कर दिया। इसके पीछे उनकी पूरी तैयारी थी। उन्होंने अपनी टीम में ग्रीम स्वान के साथ-साथ मोंटी पनेसर को भी शामिल किया था। इसके अलावा स्पिन खेलने की भी उन्होंने अच्छी-खासी प्रैक्टिस की थी। वहीं अगर कंगारुओं की टीम पर ध्यान दें तो उनके पास एक क्वॉलिटी स्पिनर की कमी है। हालांकि नाथन लियोन ने पहले मैच में अच्छी गेंदबाजी की, लेकिन दूसरे मैच में उन्हें कप्तान क्लार्क की अदूरदर्शी रणनीति का शिकार होकर बाहर बैठना पड़ा। इसके अलावा ऑस्ट्रेलियाई कप्तान माइकल क्लार्क की रणनीतिक गलतियों ने भी टीम का बेड़ा गर्क करने में अहम भूमिका निभाई। हैदराबाद टेस्ट में उनका टीम कांबिनेशन अजीब सा था। इसमें चार ओपनिंग बल्लेबाज थे, तीन ऑलराउंडर थे और जेवियर डोहार्थी जैसा स्पिनर था जो बरसों बाद वापसी कर रहा था।

डोहार्थी ने मैच में तीन विकेट तो लिए, लेकिन यह तीनों पुछल्ले बल्लेबाजों के थे। उनसे ज्यादा प्रभावी ग्लेन मैक्सवेल साबित हुए जिन्होंने मुरली विजय, धोनी, जडेजा और कोहली को आउट किया।
असल में देखा जाए तो यह ऑस्ट्रेलियाई टीम के साथ विडंबना ही है। आज तक वह कभी भी भारतीय धरती पर अपेक्षित सफलता हासिल नहीं कर पाई। कुछ बड़े नामों के संन्यास के साथ कंगारुओं के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। माइकल हसी, रिकी पोंटिंग, हेडन जैसे खिलाड़ी जा चुके हैं। आने वाले नए खिलाड़ी प्रतिभावान तो हैं, लेकिन उनके सामने अभी खुद को जमाने की चुनौती है। कंगारू हमेशा से मारक क्षमता वाले रहे हैं और इस बार उनमें इसी मारक क्षमता का अभाव नजर आ रहा है।

Tuesday, February 26, 2013

फिर एक ख्वाब

फिर एक ख्वाब ने डरा​ दिया
दादी—मां की तमाम तरकीबें याद आ गईं।
बचपन में उठ जाता था जब पसीने—पसीने होकर
पता नहीं कैसे वो जान जातीं
कोई डरावना सपना देखा होगा!
हनुमान चालीसा गातीं,
सिरहाने लोहे का चाकू रखतीं
सिर पर हाथ फेरतीं तो डर गायब, नींद आ जाती।
तब से कई सपने देखे,
और सपनों में मंजिलों के रास्ते!
उन मंजिलों की तलाश में,
मुसाफिर बनकर भटक रहा हूं।
और अब सपने अक्सर डरा दिया करते हैं!

Saturday, February 16, 2013

जम्मू—कश्मीर का हीरो, परवेज रसूल

क्या आप परवेज रसूल को जानते हैं? शायद नहीं। चलिए आपको बता देते हैं। परवेज रसूल जम्मू कश्मीर की रणजी टीम से खेलते हैं और इन दिनों बोर्ड प्रेसीडेंट इलेवन टीम में शामिल हैं। वह भारत दौरे पर आई ऑस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ खेल रहे हैं। कल उन्होंने अपनी स्पिन गेंदबाजी से कंगारुओं का कड़ा इम्तिहान लेते हुए सात विकेट झटक डाले। एक तरफ जब अफजल गुरू की फांसी के बाद जम्मू कश्मीर जल रहा है, परवेज रसूल वादियों से किसी खुशनुमा बयार की तरह आए हैं।

क्रिकेट के आसमान में भी परवेज रसूल की बहुत चर्चा नहीं है। वजह वह उस प्रदेश की टीम के सदस्य हैं, जो गोलियों, पत्थरों और प्रदर्शनों के लिए सुर्खियों में रहता है, बजाए किसी क्रिकेटर के प्रदर्शन के। वैसे परवेज के लिए भी जिंदगी बहुत आसान नहीं रही है। एक ऐसा भी दौर आया था जब लगा, चीजें हाथ से छूट जाएंगी। गेंद और बल्ले को लेकर देखे ख्वाब बिखरते से लग रहे थे।

यह बात अक्टूबर 2009 की है। जम्मू-कश्मीर की टीम कर्नल सीके नायडू टूर्नामेंट खेलने के लिए कर्नाटक में थी। यहीं जांच के दौरान पुलिस को शक हुआ कि रसूल के किट बैग में विस्फोटक है। इसके बाद रसूल को थाने में बिठा लिया गया। हालांकि बाद में वह पाक-साफ निकले, लेकिन इस घटना ने उन्हें हिलाकर रख दिया था। कई रातें उन्होंने बेचैनी में गुजार दीं। नींद गायब थी। क्रिकेट छोड़ देने तक का ख्याल मन में आने लगा था। फिर अचानक चीजें बदलीं। रसूल ने बल्ला हाथ में पकड़ा और गेंद के साथ दूसरी तमाम चीजों को हिट करना शुरू कर दिया।

उस बात को लंबा अरसा बीत चुका है। दाहिने हाथ से बल्लेबाजी और गेंदबाजी करने वाला यह हरफनमौला क्रिकेटर अब बस अपने खेल पर ध्यान देता है। 17 प्रथम श्रेणी मैचों में उनके नाम 3 शतक और 2 अर्धशतकों के साथ 46 विकेट भी हैं। यह रसूल की साधना का फल है कि कल उसने कंगारुओं को तिगनी का नाच नचा डाला। एक ऐसे वक्त में जब भारतीय टीम एक अदद क्वॉलिटी ऑफ स्पिनर को तरस रही है। आर आश्विन फॉर्म में नहीं हैं, मजबूरन हमें वापस हरभजन सिंह की तरफ देखना पड़ा है। कंगारू चुनौती दे रहे हैं कि भारतीय स्पिनरों को देख लेंगे, कौन जाने बारूदों की गंूज के बीच क्रिकेट का ककहरा सीखा यह शख्स भारतीय गेंदबाजी की नई तोप साबित हो जाए!

Tuesday, February 12, 2013

रेडियो से अपना याराना

रेडियो से अपना याराना भी काफी पुराना है।  1995 का साल। मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ता था। यहीं से मेरा रेडियो से दोस्ताना हुआ। मेरे चाचाजी के हाथ में परमानेंट रेडियो होता था और मैं परमानेंट चाचाजी के साथ। 1996 क्रिकेट विश्वकप के दौरान रेडियो से प्रेम और गहरा हुआ और गहराता ही चला गया। बाद में इस प्रेम की परिणति क्रिकेट से अथाह लगाव के रूप में हुई।

चाचाजी के साथ सुबह का समाचार, प्रादेशिक समाचार, बीबीसी हिंदी, फिल्मी नगमे, दोपहर को आने वाले भोजपुरी गीत, क्रिकेट कमेंट्री सब सुनता रहता था। जब चाचाजी खेतों की देखभाल करने उधर जाते तो रेडियो साथ ही लेकर जाते। मैं स्कूल से वापस आता और चाचाजी को घर पर नहीं पाता तो बेचैन आत्मा की तरह मैं भी खेतों की तरफ चल देता। हालांकि इस चक्कर में कई बार चाचाजी से डांट पड़ती। अक्सर मेरी पढ़ाई—लिखाई की दुहाई देकर मुझे रेडियो से दूर ही रखने की भरपूर कोशिश होती थी, लेकिन मुझे जब भी मौका मिलता मैं रेडियो से चिपक जाता।

जब पढ़ाई का सिलसिला आगे बढ़ा तो चाचाजी ने मुझे रेडियो से दूर रखने के लिए मुझसे दोस्ती तोड़ ली। अब तो जिस दिन चाचाजी किसी रिश्तेदारी या शादी में जाते मेरे लिए वह दिन रेडियोमय हो जाता। देर रात तक रेडियो। घरवालों की खूब डांटें पड़तीं, लेकिन परवाह किसे थी? फिर अगले दिन जब चाचाजी आते और रेडियो की लो बैटरी देखकर मेरी जमकर क्लास लेते।


मेरे रेडियो प्रेम में कई रिश्तेदारों का भी अनमोल योगदान है। खासकर मेरे दूर के मामाजी, जिन्हें सारे रेडियो चैनल्स की फ्रीक्वेंसी और कार्यक्रम पता होता था। वह रेडियो ट्यून करते और कहते, ये लीजिए यह रायपुर केन्द्र है। यही नहीं वह कई अन्य भाषाओं के स्टेशन भी ट्यून करते जिनपर फिल्मी गाने आते थे। और भी ढेरों यादें हैं, लेकिन उनके लिए और ज्यादा वक्त चाहिए। अब तो रेडियो के नाम पर सिर्फ एफएम चैनल्स हैं, जिन्हें न सुनना ही बेहतर लगता है, क्योंकि यह न अच्छा बोल पाते हैं और न अच्छा सुना पाते हैं। हां, जबसे इंदौर आया हूं, विविध भारती के साथ फिर से दोस्ती जमाने की कोशिश जारी है।

Saturday, February 2, 2013

कुछ अलग, पर उलझी है विश्वरूपम

एक आतंकी है, जो गोरों को मिटा देना चाहता है, लेकिन अपने बेटे की मौत पर वह टूट जाता है। वह सवाल करता है कि अल्लाह, उसके साथ क्यों नहीं है, जबकि वह अल्लाह की ही लड़ाई लड़ रहा है? अफसोस, वह तब इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ पाता जब धर्म के नाम पर लोगों को मौत बांटने के लिए बरगलाता है। मेरे हिसाब से 'विश्वरूप या 'विश्वरूपम एक बेहद खूबसूरत फिल्म बनते-बनते रह गई। फिल्म में कुछ चीजों को इतनी खूबसूरती के साथ पोर्टे किया गया है कि यह दिल को छू जाती है। खास तौर पर प्रतीकात्मकता का बेहतरीन उपयोग है। जैसे, एके-47 पर एक मक्खी भिनभिना रही है, उसे नहीं पता कि वह मौत के किस खिलौने के साथ खेल रही है। ऐसे ही एक और सीन में जान देने से पहले जिस तरह सुसाइड बांबर बना लड़का झूले पर झूलता है। जब झूला उड़ान भरता है तो लगता है जैसे वह लड़का खुदा से मिलने जा रहा है। कुछ दृश्य बेहद क्रूर भी हैं, लेकिन वह फिल्म की जरूरत हैं। जब आप आतंकी क्रूरता की कुछ बेहद तल्ख सच्चाइयों से रूबरू हो रहे हों, तो इतना तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा।

कमल ही कमल
बड़े नामों के साथ एक बड़ी प्रॉब्लम होती है। फिल्म में उनपर इतना ज्यादा फोकस होता है कि बाकी चीजें आउट ऑफ फोकस हो ही जाती हैं। 'विश्वरूपम के साथ भी यही समस्या है। कमल हासन की अन्य कुछ फिल्मों की तरह यह भी पूरी तरह कमल पर ही केन्द्रित है। कमल का शानदार नृत्य, कमल की शानदार एक्टिंग, कमल की शानदार कलाबाजियां, कमल का रूप बदलना यानी बस कमल ही कमल। कमल को खिलाने के चक्कर में कहानी उलझ गई है और ऐसी उलझी है कि आखिर तक कोई सिरा हाथ नहीं आता। शुरुआत में कमल कथक नृत्य में भावनाओं का बेहतरीन का आरोह-अवरोह पेश करते हैं। बिरजू महाराज के नृत्य निर्देशन में वह शानदार हैं, मगर यह जादू बहुत सीमित समय तक ही रह पाता है। शुरुआती आधे घंटे तक फिल्म एक अलहदा अहसास दिलाती है।

कमाल के कमल

फिल्म की शुरुआत होती है एक शक्की पत्नी के अपने पति पर शक से। असल में पत्नी अपने पति को नॉर्मल मानती ही नहीं। माने भी कैसे, एक नर्तक होने के नाते, उसकी भाव भंगिमाएं स्त्रियोचित हैं। पत्नी का दूसरे पुरुष से चक्कर है। अब वह अपना दोष मिटाने के लिए पति में दोष ढूंढ रही है और उसके पीछे जासूस लगा रखा है। गलती से एक दिन यही जासूस हीरो का पीछा करते-करते एक गलत जगह पहुंच जाता है। बस यहीं से कहानी टर्न लेती है और जो खुलासे होते हैं, वह आपको चौंकाते चले जाते हैं। हालांकि चौंकाने का यह सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल पाता। एक खास मोड़ तक आते-आते फिल्म अटकने लगती है। सीन रिपीट होने लगते हैं और यह फिल्म की पकड़ खराब करने के अलावा कुछ नहीं करते। इस दौरान अगर कुछ आपको बांधे रखता है तो वह है कमल हासन का उम्दा अभिनय। उनके किरदार की विभिन्न परतें हैं और उन्होंने हर परत पर जमकर कूंची चलाई है। इसके अलावा अभिनय में राहुल बोस हैं, जयदीप अहलावत और पूजा भी। इन्हें जब भी मौका मिलता है, ये पूरी शिद्दत के साथ अपने किरदार को उभारकर लाते हैं। खासकर राहुल बोस जो कि ओमर बने हैं, जिनका रोल एक आंख वाले आतंकी मुल्ला उमर से प्रेरित है।

किस बात का विरोध
जहां तक विवादों की बात है तो बता दूं कि फिल्म में एेसा कुछ नहीं, जिसे लेकर हंगामा खड़ा किया जाए। लगता है जिस तरह आतंकी बार-बार धर्मविशेष का नारा बुलंद करते हैं, उस पर यह आपत्ति आई हो। हालांकि फिल्म के परिप्रेक्ष्य में यह जरूरी लगता है। फिल्म देखकर लौटते वक्त मेरे दिमाग में एक दोस्त का फेसबुक स्टेटस बार-बार आ रहा था। यह भारत है, जहां हम बिना शाहरुख खान का आर्टिकल पढ़े, बिना आशीष नंदी को सुने और बिना कमल हासन की फिल्म देखे सिर्फ विरोध करने पर आमादा हो जाते हैं।
(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित )

Tuesday, January 29, 2013

सईद की बात और शाहरुख का रोना!

पता नहीं हाफिज सईद ने क्या सोचकर शाहरुख खान को पाकिस्तान में बसने का बुलावा दे डाला। क्या सईद को पता नहीं है कि पाकिस्तान में जिंदगी नाम की कोई चीज नहीं है। आए दिन वहां जाने कितने लोग आतंकी हमलों और साजिशों की भेंट चढ़ जाते हैं। 1947 से ही खुद अमन और शांति की तलाश में भटक रहे पाकिस्तान का एक सिरफिरा आतंकी आज हमारे देश के एक नामचीन सितारे को वहां बसने की सलाह देने की जुर्रत कर रहा है। हाफिज सईद कह रहा है कि शाहरुख खान को पाकिस्तान में इज्जत मिलेगी, मगर शायद सईद यह भूल रहा है कि पाकिस्तान की शोहरत तो मौत बांटने वाले मुल्क की रही है। वह भला किसी को इज्जत और हौसलाआफजाई क्या देगा।

यह भी गौर करने वाली बात है कि पाकिस्तान के तमाम कलाकार भारत में रोजी-रोटी की तलाश कर रहे हैं। चाहे वह राहत फतेह अली खान हों, वीना मलिक हों या आतिफ असलम। इनके अलावा भी बहुत से नाम पाकिस्तान से इज्जत, दौलत और शोहरत कमाने की हसरत लिए भारत की सरजमीं पर कदम रखते हैं। ऐसे में खुद अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के हालात किस कदर बेहाल होंगे। जब खुद उनके कलाकार वहां पर रुकने के लिए तैयार नहीं हैं तो भला वह शाहरुख को क्या इज्जत बख्श पाएंगे।

इज्जत तो छोड़ि़ए पाकिस्तान की इतनी भी हैसियत नहीं है कि वह शाहरुख खान जैसे सितारे को जरूरी सुरक्षा भी मुहैया करा पाए। जहां तक शाहरुख खान की बात है तो वह पिछले लंबे समय से भारत में सक्रिय हैं। एक टीवी एक्टर से लेकर उन्होंने बॉलीवुड का किंग खान बनने तक का सफर तय किया है। जो इज्जत, शोहरत और दौलत भारत ने शाहरुख को बख्शी है, बहुत लोगों को इसपर रश्क हो सकता है। इसके बावजूद अगर शाहरुख को लगता है कि भारत में उन्हें मुसलमान होने के चलते निशाना बनाया जाता है तो इसे शाहरुख की नादानी ही कहा जाएगा।

आखिर इसी मुल्क में दिलीप कुमार से लेकर मधुबाला, आमिर खान, सलमान खान, इरफान खान और न जाने कितने मुसलमान फिल्मी सितारे और क्रिकेटर हुए हैं। इन सभी को भारत ने शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाया। कभी किसी ने शिकायत नहीं कि मुसलमान होने के नाते उनपर कभी तंज किया गया। बहरहाल शाहरुख के तमाम मुरीद तो यही चाहेंगे कि वह भारत को ही आबाद करें।

( न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)

Thursday, January 10, 2013

इस जज़्बे को सलाम!

कल तक मैं सौमिक चटर्जी को नहीं जानता था, लेकिन आज मैं उस बंदे का फैन हूं। आइए पहले आपका परिचय करा दें। सौमिक चटर्जी एयर फोर्स में सार्जेंट हैं और फिलहाल सेना की रणजी टीम के कप्तान। कल उत्तर प्रदेश के खिलाफ क्वॉर्टर फाइनल मैच में सौमिक ने जो जज्बा दिखाया, हर कोई उसे सलाम कर रहा था। 113 रनों के लक्ष्य का पीछा करते हुए सेना की टीम ने जब 54 रनों पर 5 विकेट गंवा दिया तो लगा कि अब तो यूपी जीत ही लेगी। अंकित राजपूत आग उगल रहे थे और एक के बाद एक पांच विकेट लेकर उनका हौसला बुलंद था। लेकिन तभी मैदान पर जो खिलाड़ी उतरा उसे देख हर कोई हैरान था। यह थे सेना के कप्तान सौमिक चटर्जी।

एक दिन पहले भी सौमिक ने अपने जज्बे से हैरान किया था और कल तो उस जज्बे को मुकम्मल मुकाम तक पहुंचा दिया। सिर्फ एक पैर पर किसी तरह लंगड़ाते हुए पिच पर पहुंचे और जम गए। जो यूपी मैच जीतती नजर आ रही थी, सेना के इस जुझारू जवान से हारने लगी। नए नियमों के तहत सौमिक को रनर भी नहीं मिल सकता था, लेकिन उन्होंने कोई परवाह नहीं की। अपने तेवरों से उन्होंने उत्तर प्रदेश के गेंदबाजों का बखूबी सामना किया। बिना खिलाडिय़ों की प्रतिष्ठा और नाम से प्रभावित हुए सौमिक ने बिल्कुल एक नायक की तरह आगे रहकर अपनी टीम का नेतृत्व किया। न सिर्फ विकेट गिरने से रोका, बल्कि मौके देखकर गेंदों को बाउंड्री के बाहर भी पहुंचाया। अली मुर्तजा की गेंद पर जीत का छक्का लगाने के बाद उनकी भावनाएं समझी जा सकती थीं।

उत्तर प्रदेश के कोच वेंकटेश प्रसाद भी इस जवान के मुरीद हुए बिना नहीं रह सके। जब मैंने उनसे सवाल किया कि क्या आप सेना के जज्बे से हार गए तो उनका कहना था कि हां, आप कह सकते हैं! मैच के बाद जब सौमिक ने कहा कि मैं सोच कर गया था कि मैच जिताकर ही वापस आऊंगा तो एक सिपाही का दृढ़निश्चय साफ नजर आ रहा था। बाद में उनके कोच से जब हमारी बात हो रही थी तब भी उन्होंने इस बात पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि मानसिक ताकत आपको इस काबिल बना देती है कि आप कुछ भी हासिल कर सकते हैं। खैर, सेना ने रणजी सेमीफाइनल में जगह बनाकर इतिहास तो रच ही दिया है। अब आगे संभवत: उनका मुकाबला मुंबई से होगा। उम्मीद है जवानों के जज्बे का एक और मुकाबला देखने को मिलेगा।

(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)

Saturday, January 5, 2013

ग्लैमर के खेल में फेल खिलाड़ी

लीजिए, लिएंडर पेस ने भी अपनी दुर्गति करा डाली। आप सोच रहे होंगे कि फिल्मी पेज पर आज मैं एक खिलाड़ी की बात क्यों कर रहा हूं, तो बता दूं कि लिएंडर पेस की पहली फिल्म 'राजधानी एक्सप्रेस' सुपरफ्लॉप होने की रेस में शामिल हो चुकी है। पेस की फिल्म राजधानी एक्सप्रेस कैसी बनी है इसका अंदाजा आप फेसबुक पर हुई एक टिप्पणी से लगा सकते हैं। एक नामी समीक्षक ने लिखा, 'राजधानी एक्सप्रेस किसी पैसेंजर से भी स्लो है और जिसने भी लिएंडर पेस को एक्टिंग की सलाह दी, वह निश्चित उनका कोई दुश्मन ही रहा होगा।' इस तरह वह सफल खिलाड़ी से असफल हीरो बन चुके हैं।
पेस ने टेनिस कोर्ट में जितनी इज्जत कमाई थी, बॉक्स ऑफिस पर गंवा दी। फिल्म में पेस बंदूक चलाते नजर आते हैं, लेकिन उन्हें यह मान लेना चाहिए कि उनके हाथ में टेनिस रैकेट ही सबसे ज्यादा अच्छा लगता है। ग्लैमर जगत के मोह ने टेनिस जगत में भारत के 'सुपरस्टार खिलाड़ी' का बेड़ा गर्क कर दिया।
लिएंडर पेस का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। सिर्फ भारत ही क्यों, अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी लोग लिएंडर के टैलेंट का लोहा मानते हैं। 1996 में अटलांटा ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर पेस भारत के असली हीरो बन गए थे। इसके बाद तो टेनिस जगत में उन्होंने तमाम ऊंचाईयां हासिल कीं और भारतवासियों के दिल में एक सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर लिया। पता नहीं क्या पड़ी थी उन्हें जो चले आए फिल्मों में और आते ही मुंह की खाई।
वैसे जब बात निकली है तो कुछ पुराने वाकए भी याद कर लेते हैं। पहले भी खेलजगत के कई सितारे ग्लैमर के मैदान में चमकने की नाकाम कोशिश कर चुके हैं। शुरुआत करते हैं लिटिल मास्टर यानी सुनील गावस्कर से। भारतीय क्रिकेट जगत के लिविंग लीजेंड गावस्कर ने 1988 में हिंदी फिल्म 'मालामाल' में काम किया था। इसमें उनके साथ नसीरुद्दीन शाह भी थे। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं कर सकी। इसके अलावा गावस्कर ने एक मराठी फिल्म 'सावली प्रेमाची' में भी काम किया था।
इसी तरह संदीप पाटिल भी ग्लैमर जगत के मोह से बच नहीं पाए थे। वर्तमान में बीसीसीआई के चीफ सेलेक्टर और एक जमाने धाकड़ बल्लेबाज संदीप पाटिल ने 1985 में 'कभी अजनबी थे' फिल्म में काम किया था। यह फिल्म भी संदीप पाटिल के लिए एक बुरी याद बनकर रह गई। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इस फिल्म में मशहूर वेस्टइंडियन बल्लेबाज क्लाइव लॉयड ने भी अपीयरेंस दी थी।
इस कड़ी में पाकिस्तानी बल्लेबाज मोहसिन खान भी शामिल हैं। मोहसिन खान ने अपने करियर के पीक पर रहते हुए जेपी दत्ता की फिल्म 'बंटवारा' से बॉलीवुड में डेब्यू किया था। बाकी लोगों के मुकाबले मोहसिन इस मामले में थोड़ी लकी साबित हुए और फिल्म ने अच्छा बिजनेस किया। वैसे इसके पीछे बड़ी वजह फिल्म की स्टारकास्ट भी थी, जिसमें विनोद खन्ना, धर्मेंन्द्र, शम्मी कपूर, डिंपल कपाड़ि़या और पूनम ढिल्लों जैसे नाम शामिल थे। इसी तरह विनोद कांबली ने भी क्रिकेट का करियर डूबने के बाद फिल्मों में हाथ आजमाया। कांबली के खाते में 'अनर्थ' और 'पल-पल दिल के साथ' जैसी फिल्में हैं। जहां 'अनर्थ' में सुनील शेट्टी और संजय दत्त थे वहीं 'पल-पल दिल के साथ' में उनके साथ एक और खिलाड़ी अजय जडेजा थे। जब अजय जडेजा का जिक्र छिड़ा है तो बता दें कि क्रिकेट में
फिक्सिंग का दाग लगने के बाद जडेजा ने फिल्मों का दामन थामा था। उनकी पहली फिल्म 'खेल' सुनील शेट्टी और सन्नी देओल के साथ थी। इसके बाद वह एक और फिल्म में आए जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है। एक और क्रिकेटर है जिसने मजबूरी में ग्लैमर वल्र्ड को चुना और बाद में मजबूती से जम गया। बात हो रही है भारत के पूर्व तेज गेंदबाज सलिल अंकोला। 1996 क्रिकेट विश्व कप में भारतीय टीम का हिस्सा रहे चुके अंकोला ने स्वास्थ्य कारणों से क्रिकेट का मैदान छोड़ा था और सिल्वर स्क्रीन पर आ गए। यहां उन्होंने संजय दत्त के साथ दो फिल्मों 'कुरुक्षेत्र' और 'पिता' व जायद खान की डेब्यू फिल्म 'चुरा लिया है तुमने' में काम किया। इसके बाद उन्होंने छोटे परदे पर भी सफल पारी खेली है।
एक मशहूर कहावत है कि दो कश्तियों की सवारी कभी फायदा नहीं पहुंचाती और यही बात हमारे 'खिलाड़ि़यों' पर भी पूरी तरह से लागू होती है।

(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)