दीपक मिश्र
कुछ वक्त पहले आई फिल्म रांझणां में आपने उन्हें अभय देओल की बहन रश्मि के रूप में देखा। जी हां, यहां बात हो रही है शिल्पी मारवाह की। दिल्ली की गलियों में नुक्कड़ नाटकों के जरिए विभिन्न मुद्दों को उठा रही शिल्पी ने बॉलीवुड फिल्म में अभिनय की शुरुआत तो कर दी है, लेकिन अभी भी वह ग्लैमर की आंच से महफूज हैं। खुद को थिएटर की दुनिया में ही रमाए रखना चाहती हैं। अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ पिछले 7 साल से अपनी इस दुनिया में रमी शिल्पी सामाजिक जिम्मेदारियों को लेकर पूरी तरह सचेत हैं। इस इंटरव्यू से पिछली रात उन्होंने एक नाटक किया था। इस दौरान बोले गए जोरदार डायलॉग्स का असर उनकी आवाज में साफ पता चलता है। लंबी बातचीत के दौरान वह खांसती रहती हैं, गला बैठा हुआ है, लेकिन उनका लहजा जोश से भरा हुआ है। पूरी बातचीत की कुछ खास बातें आपके लिए...
रांझणा में रोल कैसे मिला?
यह बस संयोग से हुआ। असल में सोनम कपूर को रांझणां फिल्म के लिए नुक्कड़ नाटकों की वर्कशॉप करनी थी। इसके लिए रांझणां के निर्देशक आनंद एल राय उन्हें लेकर हमारे ग्रुप अस्मिता थिएटर ग्रुप में आए थे। इसी दौरान आनंद राय ने मुझे नोटिस किया। बाद में फिल्म के लेखक हिमांशु शर्मा ने मुझसे कहा कि मेरे लिए कुछ लिख रहे हैं। इस तरह मैं इस फिल्म में आ गई।
आपका क्या रिएक्शन था?
शुरू में मैं थोड़ा पसोपेश में थी, लेकिन अरविंद गौर सर (डायरेक्टर, अस्मिता थिएटर ग्रुप) ने कहा कि अच्छा मौका मिले तो छोडऩा नहीं चाहिए। बहुत अच्छा अनुभव रहा। एक नई शुरुआत हुई।
किसी तरह की नर्वसनेस थी?
हां, पहले दिन थोड़ा नर्वस थी। अभय देओल, सोनम कपूर, धनुष सभी सिनेमा के जाने-माने लोग हैं। हालांकि यह लोग काफी को-ऑपरेटिव रहे, इसलिए सब आसान हो गया। आनंद एल राय बहुत अच्छे निर्देशक हैं। उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं नई हूं।
ऐसा नहीं लगता कि बहन के रोल से शुरुआत करके गलत किया, लीडिंग रोल से शुरुआत होती तो अच्छा रहता?
बिल्कुल नहीं। मैंने तो इसकी भी अपेक्षा नहीं की थी। बिना किसी ऑडिशन के यह रोल मिल गया। आगे के बारे में ज्यादा सोचा नहीं है। अभी तो थिएटर में ही बिजी हूं।
थिएटर और सिनेमा में क्या अंतर महसूस करती हैं?
दोनों बहुत अलग हैं। सिनेमा की पहुंच ज्यादा लोगों तक है। हालांकि थिएटर में आप दर्शक से सीधे बात कर सकते हैं। आप जो करते हैं तुरंत उसका फीडबैक मिल जाता है।
आपका थिएटर की तरफ रुझान कैसे हुआ?
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हुए स्टेज पर परफॉर्म करती रहती थी। इसी दौरान अरविंद सर कॉलेज में वर्कशॉप करने आए। वहां से मैं अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ जुड़ गई। करीब ७-८ साल हो गए।
क्या थिएटर करने के बाद फिल्मों की राह आसान हो जाती है?
काफी हद तक। आप थिएटर करते हुए बेसिक चीजें सीख जाते हो। बॉडी लैंग्वेज, आवाज का उतार-चढ़ाव वगैरह। हालांकि सिनेमा में चीजें अलग ढंग से होती हैं। वहां सेट पर कैमरा एंगल और दूसरी टेक्निकल चीजों पर ध्यान देना होता है।
कैसी होती है थिएटर आर्टिस्ट की दुनिया?
कुछ भी तय नहीं। सुबह उठने के बाद रात को सोने को मिलेगा भी नहीं, यह तय नहीं है। पैसा नहीं, खाने का वक्त मुकर्रर नहीं, दिन-रात सिर्फ काम-काम और काम। यह समझ लीजिए कि बहुत ज्यादा संघर्ष होता है। यहां कोई ग्लैमर नहीं है। एक थिएटर आर्टिस्ट को दिल, दिमाग और शरीर सबकुछ इंवॉल्व करना पड़ता है।
फिर क्या देता है थिएटर?एक जुनून, जज्बा, समर्पण। एक बेहतर इंसान बना देता है थिएटर। हमारे यहां लोग आते हैं थिएटर वर्कशॉप करने। विभिन्न पेशे से जुड़े हुए लोग, डॉक्टर, इंजीनियर। लोग जॉब करते हुए थिएटर करते हैं। वह जिंदगी को करीब से देखना चाहते हैं।
आपको फैमिली का सपोर्ट मिलता है?
मैं आठ साल की उम्र से ही इंडिपेंडेंट हूं। खुद को सपोर्ट करती आई हूं। फैमिली को चिंता रहती है, लेकिन उन्हें मेरे ऊपर भरोसा है।
आगे का क्या प्लान है?
अभी तो सिर्फ थिएटर है। हर पल, हर वक्त बस थिएटर। साथ में पढ़ाई चलती रहती है। सोशल इश्यूज को लेकर जानकारी जुटाते रहते हैं, ताकि उनपर स्ट्रीट प्ले के जरिए आवाज उठाई जा सके।
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शिल्पी की पसंद—नापसंद
आदर्श- अरविंद गौर
सबसे मुश्किल काम- घटनाओं को देखकर अनदेखा नहीं कर पाती।
पसंदीदा फिल्में- कॉमेडी
खाने में पसंद- मां के हाथ का बना खाना
सुनना- जो भी अच्छा लगे
(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)
कुछ वक्त पहले आई फिल्म रांझणां में आपने उन्हें अभय देओल की बहन रश्मि के रूप में देखा। जी हां, यहां बात हो रही है शिल्पी मारवाह की। दिल्ली की गलियों में नुक्कड़ नाटकों के जरिए विभिन्न मुद्दों को उठा रही शिल्पी ने बॉलीवुड फिल्म में अभिनय की शुरुआत तो कर दी है, लेकिन अभी भी वह ग्लैमर की आंच से महफूज हैं। खुद को थिएटर की दुनिया में ही रमाए रखना चाहती हैं। अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ पिछले 7 साल से अपनी इस दुनिया में रमी शिल्पी सामाजिक जिम्मेदारियों को लेकर पूरी तरह सचेत हैं। इस इंटरव्यू से पिछली रात उन्होंने एक नाटक किया था। इस दौरान बोले गए जोरदार डायलॉग्स का असर उनकी आवाज में साफ पता चलता है। लंबी बातचीत के दौरान वह खांसती रहती हैं, गला बैठा हुआ है, लेकिन उनका लहजा जोश से भरा हुआ है। पूरी बातचीत की कुछ खास बातें आपके लिए...
रांझणा में रोल कैसे मिला?
यह बस संयोग से हुआ। असल में सोनम कपूर को रांझणां फिल्म के लिए नुक्कड़ नाटकों की वर्कशॉप करनी थी। इसके लिए रांझणां के निर्देशक आनंद एल राय उन्हें लेकर हमारे ग्रुप अस्मिता थिएटर ग्रुप में आए थे। इसी दौरान आनंद राय ने मुझे नोटिस किया। बाद में फिल्म के लेखक हिमांशु शर्मा ने मुझसे कहा कि मेरे लिए कुछ लिख रहे हैं। इस तरह मैं इस फिल्म में आ गई।
आपका क्या रिएक्शन था?
शुरू में मैं थोड़ा पसोपेश में थी, लेकिन अरविंद गौर सर (डायरेक्टर, अस्मिता थिएटर ग्रुप) ने कहा कि अच्छा मौका मिले तो छोडऩा नहीं चाहिए। बहुत अच्छा अनुभव रहा। एक नई शुरुआत हुई।
किसी तरह की नर्वसनेस थी?
हां, पहले दिन थोड़ा नर्वस थी। अभय देओल, सोनम कपूर, धनुष सभी सिनेमा के जाने-माने लोग हैं। हालांकि यह लोग काफी को-ऑपरेटिव रहे, इसलिए सब आसान हो गया। आनंद एल राय बहुत अच्छे निर्देशक हैं। उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं नई हूं।
ऐसा नहीं लगता कि बहन के रोल से शुरुआत करके गलत किया, लीडिंग रोल से शुरुआत होती तो अच्छा रहता?
बिल्कुल नहीं। मैंने तो इसकी भी अपेक्षा नहीं की थी। बिना किसी ऑडिशन के यह रोल मिल गया। आगे के बारे में ज्यादा सोचा नहीं है। अभी तो थिएटर में ही बिजी हूं।
थिएटर और सिनेमा में क्या अंतर महसूस करती हैं?
दोनों बहुत अलग हैं। सिनेमा की पहुंच ज्यादा लोगों तक है। हालांकि थिएटर में आप दर्शक से सीधे बात कर सकते हैं। आप जो करते हैं तुरंत उसका फीडबैक मिल जाता है।
आपका थिएटर की तरफ रुझान कैसे हुआ?
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हुए स्टेज पर परफॉर्म करती रहती थी। इसी दौरान अरविंद सर कॉलेज में वर्कशॉप करने आए। वहां से मैं अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ जुड़ गई। करीब ७-८ साल हो गए।
क्या थिएटर करने के बाद फिल्मों की राह आसान हो जाती है?
काफी हद तक। आप थिएटर करते हुए बेसिक चीजें सीख जाते हो। बॉडी लैंग्वेज, आवाज का उतार-चढ़ाव वगैरह। हालांकि सिनेमा में चीजें अलग ढंग से होती हैं। वहां सेट पर कैमरा एंगल और दूसरी टेक्निकल चीजों पर ध्यान देना होता है।
कैसी होती है थिएटर आर्टिस्ट की दुनिया?
कुछ भी तय नहीं। सुबह उठने के बाद रात को सोने को मिलेगा भी नहीं, यह तय नहीं है। पैसा नहीं, खाने का वक्त मुकर्रर नहीं, दिन-रात सिर्फ काम-काम और काम। यह समझ लीजिए कि बहुत ज्यादा संघर्ष होता है। यहां कोई ग्लैमर नहीं है। एक थिएटर आर्टिस्ट को दिल, दिमाग और शरीर सबकुछ इंवॉल्व करना पड़ता है।
फिर क्या देता है थिएटर?एक जुनून, जज्बा, समर्पण। एक बेहतर इंसान बना देता है थिएटर। हमारे यहां लोग आते हैं थिएटर वर्कशॉप करने। विभिन्न पेशे से जुड़े हुए लोग, डॉक्टर, इंजीनियर। लोग जॉब करते हुए थिएटर करते हैं। वह जिंदगी को करीब से देखना चाहते हैं।
आपको फैमिली का सपोर्ट मिलता है?
मैं आठ साल की उम्र से ही इंडिपेंडेंट हूं। खुद को सपोर्ट करती आई हूं। फैमिली को चिंता रहती है, लेकिन उन्हें मेरे ऊपर भरोसा है।
आगे का क्या प्लान है?
अभी तो सिर्फ थिएटर है। हर पल, हर वक्त बस थिएटर। साथ में पढ़ाई चलती रहती है। सोशल इश्यूज को लेकर जानकारी जुटाते रहते हैं, ताकि उनपर स्ट्रीट प्ले के जरिए आवाज उठाई जा सके।
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शिल्पी की पसंद—नापसंद
आदर्श- अरविंद गौर
सबसे मुश्किल काम- घटनाओं को देखकर अनदेखा नहीं कर पाती।
पसंदीदा फिल्में- कॉमेडी
खाने में पसंद- मां के हाथ का बना खाना
सुनना- जो भी अच्छा लगे
(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)
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