दीपक की बातें

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Sunday, April 27, 2014

जली हुई कविताएं...

जली हुई डायरी के पन्नों में
हर्फ़ अब भी नज़र आ रहे थे सारे
समेटकर फिर से
उन कविताओं को बुन देना चाहता था
मगर मेरे हाथ आती सिर्फ कालिख!
कालिख से लिखी थी
और सिर्फ कालिख ही बची!
जैसे जिंदगी जलकर कालिख हो जाए!

रिवॉल्वर रानी में कंगना की खनक

3  स्टार
पिछले कुछ वक्त में कंगना रानाउत ने अपना एक अलग मुकाम बनाया है। उन्होंने रिस्क उठाया है, अलग रोल चुने हैं और उसका फायदा भी उन्हें मिला है। कृष और क्वीन की बेशुमार सफलता के बाद अब कंगना पर्दे पर रिवॉल्वर रानी बनकर उतरी हैं। फिल्म की कहानी है चंबल की रहने वाली अलका सिंह (कंगना रानाउत) की। अलका को उसके मां-बाप की मौत के बाद बल्ली मामा (पीयूष मिश्रा) ने पाला है। अलका सिंह गोली-बंदूकों के बीच पली-बढ़ी है। शादी होने के बाद वह उसका पति बेवफा निकलता है और अलका उसे गोलियों से भून देती है। अलका चुनाव में खड़ी होती है, लेकिन भ्रष्ट नेता उदयभान उर्फ भानु सिंह (जाकिर हुसैन) से हार जाती है। इससे तिलमिलाई अलका बदला लेना चाहती है, मगर इसी बीच उसे स्ट्रगलिंग एक्टर रोहन (वीर दास) से प्यार हो जाता है। अब इन सबके बीच अलका क्या करती है, यही फिल्म में दिखाया गया है।

पहले कुछ अच्छी बातें
फिल्म की अच्छी बातों में सबसे पहले नंबर आता है कंगना की एक्टिंग का। कंगना ने एक बार फिर साबित किया है कि हटके रोल करने में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है। अगर देखा जाए तो फिल्म एक ब्लैक कॉमेडी है। भ्रष्ट मंत्री के भाइयों हरकतें करते हैं, कंगना की कॉमिक टाइमिंग, अंग्रेजी में इंटरव्यू, वीर दास का अंदाज और जिस तरह से समाचार चैनल पर खबर पढ़ी जाती है, सब इसे मजेदार बनाते हैं। इसी तरह कंगना के ड्रेस सेलेक्शन वाला सीन भी फनी है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक भी अच्छा है। वहीं क्लाइमेक्स भी जोरदार है।
एक्टिंग भी फिल्म का सशक्त पहलू है। पीयूष मिश्रा हों, वीर दास या फिर जाकिर हुसैन सबने अपना रोल ढंग से निभाया है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में सईद जीशान कादरी, डीना उप्पल और निकुंज मलिक ने भी प्रभावित किया है।

अब कमजोरियां
फिल्म की शुरुआत बहुत थकाऊ है। पहले 15 मिनट तक कुछ समझ में नहीं आता है। वहीं स्क्रीनप्ले काफी कमजोर है। अक्सर कहानी में तारतम्य नहीं बैठता है। अलका की दास्तान को और गहराई से बयां करने की जरूरत थी, ताकि लोग उससे जुड़ पाते। अलका का अपने मामा से मतभेद क्यूं है, यह बात जस्टीफाई नहीं हो पाती। पहला हॉफ भी बहुत इंप्रेसिव नहीं है। कुछ सीन बहुत ज्यादा बोल्ड हैं। गोलियां और गालियां भी थोक के भाव में हैं। हालांकि फिल्म को यू/ए सर्टिफिकेट मिला है, लेकिन फिर भी फैमिली इसे अवॉयड ही करेगी।

फाइनल पंच
कंगना की एक और यादगार परफॉर्मेंस, लेकिन फैमिली क्लास न होना इसके रास्ते की बाधा बनेगी। फिल्म में भिंड-मुरैना की भाषा का टच है, जो कि लोकल लोगों को इससे जोड़ेगा। अगर आप कंगना के फैन हैं, तो एक बार फिल्म देखना तो बनता है।

Saturday, April 19, 2014

नॉवेल से परदे तक के सफर पर 'टू स्टेट्स'

3.5 स्टार
आज के दौर में बहुत से लोग होंगे जिन्होंने चेतन भगत का लिखा '2 स्टेट्स' नॉवेल न पढ़ा हो। दिलचस्प ढंग से यही बात फिल्म के पक्ष में भी जाती है और इसके खिलाफ भी। अगर आपने नॉवेल पढ़ा है तो आप इसके किरदारों को परदे पर देखने के लिए रोमांचित हो सकते हैं, लेकिन इस बात का भी डर है कि फिल्म में आपको कोई नयापन न नजर आए और आप इसे एंज्वॉय न कर सकें। बहरहाल, इन सारी बातों के बावजूद २ स्टेट्स एक अच्छी फिल्म है, जो मनोरंजन करती है।

फिल्म की कहानी है पंजाबी कृष मल्होत्रा (अर्जुन कपूर) और तमिल ब्राह्मण अनन्या स्वामीनाथन (आलिया भट्ट) की। आईआईएम में पढ़ाई के दौरान दोनों की दोस्ती होती है और फिर प्यार। दोनों एक-दूसरे से शादी करना चाहते हैं, लेकिन परिवार वाले कल्चर, कलर, बोली-भाषा के बीच अंतर को देखते हुए इसकी इजाजत नहीं देते। फिर दोनों एक-दूसरे के परिवार को मनाने के लिए कैसे और क्या-क्या पापड़ बेलते हैं, यही फिल्म में दिखाया गया है।

सधा निर्देशन
निर्देशक अभिषेक वर्मन अपनी पहली फिल्म में कतई निराश नहीं करते। उनके सामने एक बेहद पॉपुलर नॉवेल को फिल्म की शक्ल में उतारने की चुनौती थी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया भी। हालांकि उनकी इस बात के लिए आलोचना हो सकती है कि वह इसमें कुछ नयापन नहीं ला सके। मसलन संवादों और घटनाक्रमों में हेर-फेर करके वह इसे कुछ और चुटीला बना सकते थे। इसके साथ ही फिल्म की लंबाई थोड़ी कम की जा सकती थी। सबसे खास बात यह है कि यह एक प्रेम-कहानी होने के साथ-साथ दो कल्चरों और बाप-बेटे के अंर्तद्वंद की भी कहानी है। निर्देशक ने इसके साथ पूरी तरह न्याय किया है। फिल्म के कुछ दृश्य बेहद इमोशनल हैं और दिल को छू लेते हैं।

आलिया-अर्जुन का मैजिक
इस फिल्म में आलिया और अर्जुन की जोड़ी गजब की लगी है। दोनों के बीच पर्दे पर बढि़या केमेस्ट्री है और यह फिल्म के लिए बोनस का काम करती है। आलिया ने एक बार फिर अपनी शानदार एक्टिंग से चौंकाया है। स्टूडेंट ऑफ द ईयर और हाइवे के बाद उनकी एक और चमकदार परफॉर्मेंस। वहीं अर्जुन ने भी इस बार निराश नहीं किया है। अपने किरदार के विभिन्न रंगों को कायदे से उभरने दिया है। परदे पर अर्जुन की मां बनीं अमृता सिंह ने कमाल का काम किया है, वहीं अर्जुन के पिता के किरदार में रोनित रॉय बहुत इंप्रेस नहीं कर पाते। हां, अनन्या की मां बनीं रेवती ने जरूर प्रभावित किया।

शानदार लोकेशंस
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी बढि़या है और खूबसूरत लोकेशंस दिल को छू लेती हैं। खासतौर पर साउथ के जितने भी दृश्य दिखाए गए हैं, वह बेहद खूबसूरत बन पड़े हैं। फिल्म के गाने माहौल के हिसाब से मुफीद हैं और संगीत भी। डायलॉग्स अधिकांशत: नॉवेल से ही उठाए गए हैं और चुटीले हैं।

फाइनल पंच
युवाओं से फिल्म खूब कनेक्ट करती है और उन्हें पसंद भी आएगी। साथ ही उम्मीद की जानी चाहिए को इस फिल्म के जरिए अर्जुन कपूर को अपनी पहली बड़ी हिट फिल्म मिल सकती है।

Tuesday, April 15, 2014

चुनावी माहौल में 'भूतनाथ रिटन् र्स'

तीन स्टार
पूरे देश में चुनावी माहौल है और फर्ज कीजिए कि इसी बीच एक भूत आए और अपना नॉमिनेशन फाइल कर दे? जी हां, यही कहानी है इस शुक्रवार रिलीज हुई फिल्म 'भूतनाथ रिटन् र्स' की। भूतनाथ (अमिताभ बच्चन) जब वापस भूतलैंड पहुंचता है तो लोग उसके ऊपर हंसते हैं, कि वह एक बच्चे तक को डरा नहीं पाया। इधर दोबारा जन्म लेने के लिए भी लंबी वेटिंग है। इस बीच उसे मौका मिलता है कि वह दोबारा धरती पर जाए और लोगों का डराकर भूतों का सम्मान वापस दिलाए। भूतनाथ लौटकर धरती पर आता है तो उसे यहां अखरोट (पार्थ भालेराव) मिल जाता है जो उसे देख सकता है। अब भूतनाथ का सामना होता है यहां के हालात और मुश्किलों से। स्थानीय विधायक भाऊ (बोमन ईरानी) ने अपने बाहुबल के दम पर जबर्दस्त भ्रष्टाचार फैला रखा है। हालात एेसे बनते हैं कि भूतनाथ को भाऊ के खिलाफ चुनाव लडऩा पड़ता है। आगे की कहानी कई जबर्दस्त उतार-चढ़ाव से भरी है, जिसमें गंभीर बातें तो हैं ही, हास्य की फुहार भी खूब है।

पहला हॉफ जबर्दस्त
पहले हॉफ में फिल्म जबर्दस्त है। यहां पर एक-एक सीन बढि़या है। कहानी, अभिनय और डायलॉग से लेकर सिनेमैटोग्राफी तक। निर्देशक ने इतने शानदार ढंग से प्लॉट को बुना है कि कपोल कल्पना लगने वाली कहानी भी सच्ची लगने लगती है। इसके साथ ही फिल्म में महंगाई, करप्शन और सरकारी कर्मचारियों की कामचोरी पर गहरे ढंग से कटाक्ष किया गया है।  इसे और भी सजीव बना देते हैं अमिताभ बच्चन, पार्थ, बोमन ईरानी और संजय मिश्रा। इन सभी ने अपने अभिनय और डायलॉग डिलीवरी का शानदार नमूना पेश किया है। मगर रुकिए मैंने अभी तक सिर्फ फस्र्ट हॉफ की बात की है। दूसरा हॉफ इतना मजेदार नहीं है। यह जबर्दस्ती खींचा गया सा लगता है।

बढि़या एक्टिंग और डायलॉग
फिल्म में सभी कलाकारों ने बढि़या एक्टिंग की है। अमिताभ तो हैं ही, लेकिन तारीफ करनी होगी पार्थ की। कई जगहों पर उन्होंने अमिताभ को भी पसीने छुड़ा दिए हैं। इसके बाद बारी आती है बोमन ईरानी की। एक बाहुबली नेता के रोल में उन्होंने जान डाल दी है। वहीं संजय मिश्रा ने भी गुदगुदाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। बाकी भूमिकाओं में ऊषा जाधव और ब्रजेंद्र काला ने भी अपनी भूमिका ढंग से निभाई है।
फिल्म के डायलॉग भी काफी क्रिस्पी हैं। खास बात यह है कि डायलॉग्स को बाजारू बनाने के बजाए उनमें ह्यूमर का विटी पुट डाला गया है। सिनेमैटोग्राफी बढि़या है, लेकिन गाने इतने खास नहीं हैं।

फाइनल पंच
चुनाव के मौसम में फिल्म एक बार देखनी तो बनती है। कहने को तो फिल्म बच्चों की है, लेकिन 'वोट दें जरूर, चाहे किसी को भी दें' का मैसेज खास गंभीर है।

Saturday, April 5, 2014

माइंडलेस, लेकिन मनोरंजक है 'मैं तेरा हीरो'

तीन स्टार
'मैं तेरा हीरो' फिल्म देखते हुए आपको अब तक की बहुत सारी फिल्में याद आएंगी। खासकर 90 के दशक में देखी हुई डेविड धवन और गोविंदा की फिल्में। उस वक्त के कॉमेडी किंग कहे गए डेविड धवन ने वही सारे मसाले आजमाए हैं, जो उन्होंने कभी गोविंदा और सलमान के साथ आजमाए थे। अपने बेटे को इंडस्ट्री में जमाने के लिए उन्होंने बिल्कुल सेफ गेम खेला है।

फिल्म की कहानी है सीनू (वरुण धवन) की, जिसका असली नाम है श्रीनाथ प्रसाद। वह ऊटी का रहने वाला है और उसके शहर में उससे हर कोई तंग है। यही कारण है कि जब वह अपना शहर छोड़कर बेंगलुरू जाता है तो पूरा शहर उसे छोडऩे स्टेशन पर आ जाता है। बेंगलुरू में सीनू कॉलेज का दिल एक लड़की सुनयना (इलियाना डिक्रूज) पर आ जाता है। मुश्किल यह है कि सुनयना को एक गुस्सैल पुलिसवाला अंगद (अरुणोदय सिंह) भी पसंद करता है। वहीं अंडरवल्र्ड डॉन विक्रम (अनुपम खेर) की बेटी आयशा (नरगिस फाखरी) को सीनू से एकतरफा प्यार हो जाता है और वह सुनयना का अपहरण करवा लेती है। किसे अपना प्यार मिलेगा, यही फिल्म की कहानी है।

टिपिकल डेविड धवन फॉर्मूला
टिपिकल डेविड धवन फॉर्मूला फिल्म। कुछ भी नया नहीं है। सबकुछ देखा सुना हुआ है। 90 के दशक में इन्हीं फॉर्मूलों के दम पर डेविड धवन ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी एक अलग पहचान बना रखी थी। एक बार फिर से उन्होंने वही सब आजमाया है। चिकना-चुपड़ा हीरो है, जो गुंडों की पिटाई भी कर सकता है और किसी से भी पंगा ले सकता है। सिर्फ यही नहीं, वह भगवान से बात भी कर सकता है और भगवान उसका जवाब भी देते हैं। इसके अलावा आधे कपड़ों में लिपटी दो खूबसूरत हिरोइनें हैं, जिन्हें देखकर भ्रम होता है कि कहीं कुपोषण के चलते उनकी हड्डियां तो नहीं निकल आईं? साथ में आज का जरूरी फैशन डबल मीनिंग डायलॉग्स तो हैं ही।

दिमाग न लगाना
इस फिल्म का हीरो ऐसे कॉलेज में पढ़ता है, जहां कभी क्लास चलती ही नहीं। पास न होने पर वह अपने ही प्रोफेसर की बेटी का अपहरण कर लेता है और वह भी शादी के दिन। फिल्म में एक पुलिसवाला भी है जिसने अपने गुंडे पाल रखे हैं और जिसका एकमात्र काम उस लड़की के साथ इश्क लड़ाना है, जिसपर उसका दिल आ गया है। इसके अलावा एक बहुत बड़ा अंडरवल्र्ड डॉन भी है, जिसके घर में ढेरों गुंडे होने के बावजूद, वह खुद ही रात में घर से भागे अपने दामाद को ढूंढता है।

प्लस प्वॉइंट
फिल्म का प्लस प्वॉइंट है, इसका बोझिल न होना। यह एंटरटेन करती है। अभिनय के मामले में वरुण धवन ने अपना सिक्का चलाया है। अपनी पहली फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' में उन्होंने संभावनाएं जगाई थीं और उन्हें वह यहां आगे बढ़ाते हैं। डांस और एक्शन से लेकर कॉमेडी तक में उन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। इसके अलावा सौरभ शुक्ला ने भी अच्छा काम किया है। डॉन के भाई के रूप में अपनी हरकतों से वह लगातार हंसाते रहते हैं। यही वजह है कि पहले भाग की तुलना में दूसरा भाग ज्यादा मनोरंजक है। अनुपम खेर, राजपाल यादव और अरुणोदय सिंह भी अपनी भूमिकाओं में फिट हैं। फिल्म के गाने अच्छे हैं। खासतौर पर गलत बात है, शनिवारी रात और पलट।

फाइनल पंच
'मैं तेरा हीरो' आपको पसंद आएगी, लेकिन शर्त है कि आप दिमाग घर पर छोड़कर जाएं। वैसे दिमाग से देखने के लिए सिनेमाघरों में 'कैप्टन अमेरिका' और 'जल' भी चल रही हैं।