Sunday, December 5, 2010
हाँ हममें है दम
खाई ऐसा कुछ हुआ नहीं और गंभीर की अगुवाई में टीम ने बड़ी आसानी से न्यूजीलैंड की टीम को हार का स्वाद चखाया और सीरिज पर कब्ज़ा कर लिया। इस दौरान टीम का प्रदर्शन खासा अच्छा रहा। खुद कप्तान गंभीर ने मोर्चे से अगुवाई की और टीम को कहीं से भी सचिन, सहवाग, धोनी और दूसरे बड़े खिलाडियों की कमी महसूस नहीं होने दी। उनके अलावा विराट कोहली, युसूफ पठान, श्रीसंत, आर आश्विन और दूसरे खिलाडियों ने भी कहीं से निराश नहीं किया।
भारतीय टीम के युवाओं की यह जीत दिखाती है कि टीम अब पूरी तरह परिपक्व हो चुकी है। मुझे पिछले समय के दिन याद आते है। जब टीम पूरी तरह सचिन पर निर्भर हुआ करती थी। बाहर करते ही बल्लेबाजी धडाम हो जाया करती थी। अब टीम उस दुआर को काफी पीछे छोड़ चुकी है। यह ये दिखाता है कि हमारी युवा पीढ़ी कितनी मजबूत है। बढ़ो इंडिया वर्ल्ड कप जीत लो!
Friday, December 3, 2010
'शूल' के बहाने
Thursday, November 4, 2010
बस 'एक' मौत !
घर लौटते हुए मेरी गली में कुछ रोना सुनाई दिया। मैंने एक आदमी से पूछा क्या हुआ? उसने कहा एक आदमी मर गया है। उसीके गम में सब लोग रो रहे हैं। मरने वाले की बीवी, अलग... बेटा अलग और दूसरे घर वाले अलग। उनकी तो दुनिया ही उजाड़ गई थी। मेरे दिमाग में अपने सर की बातें घूमने लगीं। 'एक ही आदमी तो मरा है...'
Tuesday, November 2, 2010
आफर्स कि बरसात है, जमकर लूटिये
वैसे सिर्फ मोबाइल ही क्यों। आफर का बाज़ार तो हर जगह सजा है। किसी गली कूचे में निकल जाइये बस बहार ही बहार । टीवी से लेकर मोबाइल, बर्तन, कपडा, हर जगह। कहीं १० परसेंट कि छूट है तो कहीं ५० परसेंट तक आफ । लूटने का पूरा मौका बिखरा पड़ा है। कैसी अजीब बात है ना कि तमाम कम्पनियां खुद को लुटवाने को तैयार बैठी है। आओ आओ हमें लूटो, लूट आफर, नोच खसोट के ले जाओ। और पब्लिक भी मौका ताड़े बैठे है। चलिए अच्छा है। वो लुटवा रहे हैं, आप भी लूटिये।
Tuesday, October 5, 2010
लक्ष्मण तुम्हे सलाम!
वी वी एस लक्ष्मण, एक ऐसा नाम जिसके नाम कई ऐसे रेकॉर्ड्स हैं जिसके लिए हर बैट्समैन लालायित रहता है। जब टीम के सभी बल्लेबाज आउट हो चुके होते हैं तो लक्ष्मण उभर कर सामने आते है। जिस ऑस्ट्रेलिया के सामने दुनिया भर के बल्लेबाज खौफ खाते हैं, उसी ऑस्ट्रेलिया के सामने लक्ष्मण अपना बेस्ट देते है। १७३, २८१, और मोहाली में खेली गयी ७३ रनों कि पारियां तो महज मिसाल है। दरअसल लक्ष्मण उस चट्टान का नाम है जो मुश्किलों के सामने और मजबूत हो जाती है।
इन सभी बातों के बावजूद इसे लक्ष्मण का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उन्हें वह नाम और शोहरत नहीं मिली जिसके वास्तव में वो हक़दार हैं। शायद इसका कारन यह है कि लक्ष्मण उस दौर में टीम इंडिया का हिस्सा बने जब सचिन, गांगुली और द्रविड़ जैसे बड़े नाम टीम में थे। इनकी परछाई में लक्ष्मण कि तमाम उपलब्धियां दब कर रह गई। लेकिन इन बातों से बेपरवाह लक्ष्मण सिर्फ अपने काम में लगे रहे। जब भी जरूरत हुई उनके बल्ले से खूब रन बरसे।
यहाँ इस बात पर ध्यान देने कि जरूरत है कि जब टीम को जरूरत थी। सचिन ने भले ही बहुत ज्यादा रन बनाये हों, रेकार्डों का पहाड़ खड़ा किया हो, लेकिन बहुत कम मैच सचिन ने जितायें है। जब जब टीम को उनसे आशा थी निराशा ही हाथ लगी। द्रविड़ जरूर मिस्टर भरोसेमंद का तमगा पायें हैं लेकिन यह भी याद रखिये कि द्रविड़ नंबर तीन पर बत्टिंग करने आते है। वह उन्हें दूसरे बल्लेबाजों का साथ मिल जाता है, मगर लक्ष्मण कि कहानी जरा अलग है। वह पांचवें या छठे नंबर पर बल्लेबाजी करने आतें हैं। यहाँ अकसर उन्हें पुछल्ले बल्लेबाजो का ही साथ मिलता है। ऐसे में चुनौती और भी बड़ी हो जाती है।
यह देश का दुर्भाग्य है कि उन्हें एक दिवसीय मैचों में ज्यादा मौके नहीं मिले और चयन कर्ताओं ने उन्हें टेस्ट बल्लेबाज बना के रख दिया। लक्ष्मण कि स्टाइल भी खूबसूरत है। वह अजहर को अपना आदर्श मानते हैं और उसी स्टाइल में बल्लेबाजी करते हैं। कलाइयों कि उनकी जादूगरी किसी का भी मन मोह लेती है। भले ही उनके नाम बहुत सारे रिकॉर्ड ना हों, बहुत सारे अवार्ड ना हों, पर जब भी इंडिया कि कुछ शानदार जीत कि चर्चा चलेगी, लक्ष्मण का नाम खुद बा खुद जुबान पर आ जायेगा। लक्ष्मण तुम्हे सलाम!
Thursday, September 16, 2010
यादों का अवसान समीप है
साहित्यकारों और ऋषियों की धरती आजमगढ़। तमसा के पावन तट पर बसे इस शहर का साहित्य और आध्यात्म के क्षेत्र में गौरवशाली अतीत रहा है। मगर अफसोस अतीत जितना सफेद और स्पष्ट है, वर्तमान उतना ही धुंधला होता जा रहा है। आज इस जिले की पहचान आतंकवाद और अबु सलेम से होती है। आजमगढ़ का नाम सुनकर किसी को रश्क नहीं होता। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, राहुल सांकृत्यायन, कैफी आजमी जैसी शख्सियतों के जिले की नई पीढ़ी ने कई दूसरे क्षेत्रों में नाम कमाया मगर अपने गौरवशाली अतीत को भूलने की दोषी भी वे हैसिर्फ नई पीढ़ी ही क्यों, दोषी तो पुरानी पीढ़ी भी है जो अपनी धरोहर को नई पीढ़ी तक पहुंचाने में नाकाम रही। जिले के निजामाबाद कस्बे में जन्मे अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की बची यादों और प्रासंगिकता को टटोलने की कोशिश के दौरान कई रोचक बातें सामने आईं.
यहीं पैदा हुए थे कविसम्राट
शहर से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित कस्बा निजामाबाद एशिया में अपने मिट्टी के बर्तनों के लिए मशहूर है। इसी निजामाबाद की धरती पर हरिऔध जैसी शख्सियत ने जन्म लिया। एक ऐसी शख्सियत जिसे कवि सम्राट होने का गौरव हासिल है। एक ऐसी शख्सियत जिसने हिंदी भाषा को खड़ी बोली का पहला महकाव्य ‘प्रियप्रवास’ दिया। जब मैं निजामाबाद पहुंचा तो शाम का ही समय ही था और हरिऔध जी के जन्म स्थल की ओर बढ़ते हुए जेहन में ‘प्रियप्रवास’ की यह पंक्तियां गूँज रही थीं।
'दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी अब राजती·
मलिनी कुल वल्लभ की प्रभा
मूर्ति से बाकी है याद
हरिऔधजी का घर कहां है? पूछते-पूछते मैं बढऩे लगा। निजामाबाद कस्बे से पहले ही एक तिराहा पड़ता है। तिराहे पर हरिऔध जी की ही मूर्ति थी। देखकर अच्छा लगा की चलिए कम से कम कस्बे वाले इसी बहाने उन्हें याद तो रखे हुए हैं। तभी दिमाग ने खुराफात की। सोचा जरा आस-पास के लोगों से इसके बारे में पूछें। लोगों के जवाब हैरान करने वाले थे। कइयों को तो मालूम था की यह हरिऔध की मूर्ति थी मगर यह नहीं मालूम था की हरिऔध कौन हैं।
कौन हरिऔध?
इसके बाद मैं आगे चला। थोड़ी दूर चलने के बाद गुरुद्वारे वाली गली आई। इसी गली में हरिऔध जी रहा करते थे यह बात मुझे पता थी। इसके बाद मैं पहुंचा गुरुद्वारे के पास। यहां कुछ लोगों से जानना चाहा की हरिऔध जी का पुराना घर किस तरफ है तो लोगों ने कहा की पास में ही हरिऔध विद्यालय है, वहीं जाकर पूछ लें सारी जानकारी मिल जाएगी। यह देखकर हैरानी हुई की हरिऔध के घर के पास के लोगों का यह हाल है की उन्हें हरिऔध का घर तक नहीं पता। इसके बाद मैं स्कूल में जा पहुंचा। यह एक निजी इंटर कालेज है. मैंने प्राचार्य से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की। दस मिनट बाद प्राचार्य, अरुण कुमार गौड़ आए। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया की यहांअब उनका कोई नामलेवा नहीं है। एक यही स्कूल है जिसने उनके नाम को जिंदा रखा है। इस हकिकत को मैं पहले ही जान चुका था क्योंकी निजामाबाद कस्बे में जिस कीसी से भी मैंने हरिऔध का नाम लिया तो उसका जवाब था-कौन? हरिऔध स्कूल ? गौड़ ने कहा की प्रशासन और नेताओं के पास इतनी फुरसत नहीं है की वे हरिऔध जी की भूली बिसरी यादों को संवारें.
भूल गई जन्मभूमि
इसके बाद मैंने उनसे हरिऔध जी का पुराना घर देखने की बात कही। उन्होंने अपने स्कूल के एक बच्चे को साथ लगाया और कहा, घर कहां हैं खंडहर ही तो बचा है। खैर, आप इतनी दूर से आएं हैं तो तसल्ली कर लीजिए। बच्चे ·को लेकर मैं हरिऔध जी के घर की तरफ बढ़ा। हम गुरुद्वारे के अंदर से होते हुए उस तरफ बढ़े। बच्चे को भी उस जगह के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी। मैंने उससे पूछा जिसका घर दिखाने तुम मुझे लेकर जा रहे हो जानते हो वह कौन हैं? जवाब में छठी क्लास का वह बच्चा सिर्फ मेरा मुंह देख रहा था। खैर उसने आसपास के एक दो घरों से पूछा और फिर हम उस जगह पर थे जहां कभी हरिऔध जी ने अपना रचना संसार रचा था. टूटकर बिखर चुका घर, आधी-अधूरी मिट्टी की दीवारें और आसपास उगी घास, वहां का बस यही नजारा था। मन में फिर हरिऔध जी की एक कविता की पंक्तियां गूंज रही थीं-
प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल,
नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।
जिस जन्मभूमि को ना भूलने की बात हरिऔध जी ने की थी वह जन्मभूमि उनकी यादों को बिसार चुकी है।
हरिऔध कला भवन का कोई पुरसाहाल नहीं
इसके बाद मैंने आजमगढ़ शहर जाने का मन बनाया। सोचा, जरा देखूं शहर में हरिऔध जी की यादों को कीतना और कीस तरह संजोया गया है। इस सिलसिले में मुलाकात हुई पंकज गौतम जी से। उन्होंने बताया बहुत साल पहले हरिऔध कला भवन बनाया गया था। वहां पर हरिऔध की रचनाएं, राहुल सांकृत्यायन की कुछ कीताबें संजो कर रखी गई थीं। मैंने सोचा यहां पर कुछ रोचक जानकारी मिलेगी तो हरिऔध कला भवन की तरफ बढ़ चला। शहर के बीचोबीच विकास भवन के समीप स्थित हरिऔध कला भवन जर्जरता की जिंदा मिसाल है। आसपास के लोगों ने बताया की लगभग चार साल पहले यह गिर गया। इसके बाद कोई भी इसकी सुध लेने वाला नहीं है। कला भवन के बरामदे में लगी हरिऔध जी की पेंटिंग यहां की बदहाली पर आंसू बहाती लग रही थी। यहां पर कभी संगीत भवन, वाचनालय वगैरह की भी व्यवस्था भी थी, पर वर्तमान में यहां सिर्फ खंडहर होता भवन ही बचा है।
विदेशो फैली है ख्याति
हरिऔध जी के बारे में कुछ और जानने की चाहत में मैं पहुंचा रेलवे स्टेशन के समीप रहने वाले जगदीश बर्नवाल ‘कुंद' के पास। किताबों से भरे एक कमरे में करीब 70 साल के बुजुर्ग को देख मैं हैरान रह गया। ऊर्जा से भरे हुए। जैसे ही पता चला हरिऔध जी के बारे में जानना चाहता हूं, शुरू हो गए. बताया की हरिऔध जी की ख्याति विदेशों तक फैली थी। चेक विद्वान मेंसेन्स लेस्नी ने 1911 में उनकी कीताब ‘ठेठ हिंदी का ठाट’ का चेक में अनुवाद कीया था. हरिऔध ने हिंदी आलोचना में कबीर को विषय बनाया था और उनकी रचनावली पर 90 पृष्ठ की भूमिका लिखी थी जो अपने आप में उल्लेखनीय है। यादों को संजोने की बात पर जगदीश जी बोले पुरानी कोतवाली पर कभी हरिऔध वाचनालय हुआ करता था। एक से एक कीताबें थीं वहां, पर अब इसे भी देखने वाला कोई नहीं है।
हिंदी दिवस के अवसर पर आई नेक्स्ट के 14 सितम्बर के अंक में प्रकाशित
Friday, August 6, 2010
व्यस्तताओं के बीच जिंदगी के बदलते मायने
जिंदगी बहुत तेजी से चल रही. हर पल, हर मोड़ पर इसके मायने बदलते जा रहे हैं। ईमानदारी वगैरह की बातें तो छोड़ दीजिए बस किसी तरह आदमी किसी तरह अपनी जिंदगी जी ले यही क्या कम है। आप लोग भी सोच रहे होंगे ·कि क्या मैं आज उपदेश देने बैठा हूं? अरे नहीं जनाब, इतनी फुरसत किसके पास है, उपदेश सुनने की और देने की। बस बातों बातों में कुछ बातें याद आईं तो सोचा आपसे शेयर करता चलूं। कुछ वक्त पहले की बात है। मैं लखनऊ से अपने घर आजमगढ़ जा रहा था।अभी बस लखनऊ से थोड़ी दूर ही पहुंची थी कि एक जगह जबर्दस्त जाम लग गया। रात के करीब 4 बजे क समय था। बस के ज्यादातर मुसाफिरों को इस बात से ज्यादा मतलब नहीं था कि जाम क्यों लगा है. ऐसे में कई लोग हौले-हौले नींद का मजा उठा रहे थे। मगर बस में बैठे कुछ लोगों से रहा नहीं गया और वे नीचे उतर पड़े। उनमें से एक लड़के ने काफी मेहनत करते हुए जाम खुलावाया। जाम खुला तो बस चल पड़ी। अभी बस हैदरगढ़ के आस-पास पहुंची थी कि एक दूसरी बस ने उसे ओवरटेक किया। उस बस में एक लडका उतर कर आया। जानते हैं वह लडका कौन था? वह वही लडका था जिसने जाम खुलवाया था. दरअसल जाम खुलवाते खुलवाते वह काफी पीछे चला गया था और जब बस खुली तो किसी को ख्याल ही नहीं रहा कि वह पीछे छूट गया है। इस बात को लेकर उस लड़के ने काफी गुस्सा दिखाया और कहा कि मैं आप लोगों की सुविधा के लिए जाम खुलवाने इतनी दूर तक चला गया, मगर आप लोगों को इस बात का जरा भी ख्याल नहीं आया कि मेरे लिए बस रुकवा लेते. फिर उसने बस कंडक्टर की भी जमकर क्लास ली और कहा कि अगर मेरे डॉक्यूमेंट्स मिस हो जाते तो मैं उसका हर्जाना कहां से भरता। खैर बात आई-गई हो गई और बस चलती रही। आगे जाक्रर वह लडका अपनी मंजिल पर उतर गया. बस यहीं से मेरे दिमाग में ख्याल आने लगा कि यह भलाई-बुराई, ईमानदारी, दूसरों की सेवा क्या किताबी बातें नहीं है। अपने मतलब और सुविधा के लिए जी रही इस दुनिया में भला इन चीजों की क्या जगह है। मन अभी तक उलझा हुआ है अगर आपके पास इसक कोई जवाब हो तो जरूर बताइएगा।
Saturday, July 10, 2010
"मंहगाई डायन" के जलवे
Sunday, June 20, 2010
अब तो बदल जाओ पापा
Wednesday, June 16, 2010
फुटबाल के खुमार में डूबी दुनिया
Thursday, April 8, 2010
इन हिंदी कमेंटेटरों से बचाओ
Saturday, April 3, 2010
बेहतरीन प्रयास
लम्बे समय बाद फिर से चिटठा जगत में वापसी कर रहा हूँ। पिछले दिनों लव सेक्स और धोखा देखने गया था। साथ में कुछ दोस्त भी थे। सभी को फिल्म के बारे में एक ख़ास किस्म की एक्साईटमेंट था। ऐसा शायद फिल्म के टाइटल को लेकर था। फिल्म देखने आई भीड़ के मन भी यह बात ज़रूर रही होगी। लेकिन फिल्म शुरू होने के साथ ही लोगों का उत्साह ख़त्म होने लगा। इसके दो कारन थे। एक तो फिल्म बनाए का तरीका। दुसरे दूसरे फिल्म में वह सारे मसाले मौजूद नहीं थे जिसकी उम्मीद लेकर ज्यादातर दर्शक गए थे। आलम यह था की इंटरवल के वक्त आधे लोग या तो सो रहे थे या फिर बोर हो रहे थे। मेरे साथ गए दोस्तों का भी यही हाल था। कई लोग तो फिल्म बीच में ही छोड़कर चलते बने। हालाकि फिल्म मुझे काफी पसंद आई। फिल्म को बनाने के बंधे-बंधाए तरीके को छोड़कर जिस तरह से एक नया तरीका अपनाया गया था उसे देखकर मन खुश हो गया। हालांकि दोस्त बार-बार कह रहे थे यार कहां से फंस गए। मुझे फिल्म में कई बातें पसंद आईं। मसलन एक नए तरीके से स्टोरी को पेश किया गया था। सबसे बड़ी बात कि फिल्म में कुछ उन घटनाओं को उठाया गया था जिनसे कभी ना कभी हम रूबरू हो चुके हैं। मूविंग केमरे और सीसीटीव केमरे के जरिए फिल्म की शूटिंग का ख्याल तो अभी तक शायद किसी को जेहन में आया ही नहीं रहा होगा। अगर आया भी होगा तो ऐसा करने के लिए काफी साहसी होना पड़ता है। दिबाकर बनर्जी ने यह साहस दिखाया इसके लिए उनकी तारीफ होनी चाहिए।
Saturday, February 13, 2010
हाए हाए ये वैलेन्ताईन
Wednesday, January 20, 2010
ये कैसा खेल है भाई
Friday, January 15, 2010
नाटक जारी है कसाब का
Thursday, January 14, 2010
बच्चा कमीना कैसे है गुलज़ार साहब
Wednesday, January 13, 2010
हाकी की तो हो गयी न ऐसी कि तैसी
अभी एक चैनल पर खबर चल रही थी कि हाकी इंडिया का खज़ाना भरा पड़ा है इसके बावजूद वह खिलाडियों को पैसे देने में आनाकानी कर रहा है। अगर यह सच है तो फिर इससे बड़ी शर्म कि बात क्या हो सकती है। शाहरुख़ खान ने सही ही कहा। हम अपने खिलाडियों को पैसे और सुविधाएँ तो दे नहीं पाते पर उम्मीद करते हैं कि वो गोल्ड मेडल ही जीतें। ये कैसे मुमकिन है। ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में हाकी तरफ पर खेली जा रही है भारत में गिने चुने ही तरफ मैदान हैं। इसके दूसरी उच्चस्तरीय सुविधाओं कि बात तो छोड़ दीजिये।
Monday, January 11, 2010
चैनल को मौत की चाह रखने वाले की तलाश
जानवरों पर टेस्टेड है यह प्रोसेस
विज्ञापन को पढ़कर 'इंडिपेंडंट' अखबार के एक रिपोर्टर ने फैल्कम टीवी के रिचर्ड बेलफील्ड से संपर्क साधा। रिपोर्टर ने खुद अपना शरीर ममी बनाने के लिए देने का ऑफर किया। तब बेलफील्ड ने बताया कि हम अगले कुछ महीनों तक आपकी फिल्म बनाना चाहेंगे ताकि समझ सकें कि आप कौन हैं और किस तरह के व्यक्ति हैं। हमने सूअरों पर ममी बनाने की इस प्रक्रिया का परीक्षण किया है। इस प्रॉजेक्ट के लिए तमाम वैज्ञानिक भी हमारे पास हैं। जहां यह प्रक्रिया की जाएगी, उस जगह के लिए ह्यूमन टिशू अथॉरिटी से अप्रूवल भी लिया जा चुका है।
म्यूजियम में रखी जाएगी ममी
बेलफील्ड ने बताया कि ममी बनाने के बाद बॉडी को म्यूजियम में रखा जा सकता है ताकि लोग ममी बनाने की प्रक्रिया को समझ सकें। हम ममी को दो-तीन साल तक रखकर देखेंगे कि यह प्रक्रिया इंसानों पर कितनी सफल हुई। इसके बाद उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा। हालांकि इस पूरे काम के लिए कोई रकम नहीं दी जाएगी लेकिन जो खर्च आएगा, उसे हम वहन करेंगे। बेलफील्ड ने दावा किया कि मिस्त्र वासी बहुत ही चालाक ऑर्गनिक केमिस्ट थे। ममी बनाने में वह जिन पदार्थों का इस्तेमाल करते थे, उनमें से एक को हमने खोज लिया है।
ममी में माहिर थे मिस्त्र के लोग
तीन हजार साल पहले मिस्त्र के लोगों को मृत व्यक्तियों के शरीर को संलेपन करके सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित रखने की कला में महारत हासिल थी। उनका मानना था कि मृत्यु के बाद बेहतर जिंदगी के लिए शरीर को इस तरह सुरक्षित करना जरूरी है। कई अन्य प्राचीन सभ्यताओं को भी ममी बनाने की कला आती थी लेकिन मिस्त्रवासियों द्वारा तैयार की गईं ममी ज्यादा समय तक सुरक्षित रहती थीं। माना जाता है कि मिस्त्र के लोग ममी बनाने के लिए जिस घोल का इस्तेमाल करते थे, वह सिर्फ बर्मा में मिलने वाले एक पदार्थ से तैयार किया जाता था। इस पदार्थ को मिस्त्रवासी 4000 मील दूर बर्मा से लाया करते थे।
पोस्टमॉर्टम दिखा चुका चैनल
चैनल-4 आठ साल पहले भी टीवी पर लाइव पोस्टमॉर्टम करवाकर सुर्खियों में आ चुका है। तब जर्मनी के डॉक्टर गंथेर वॉन हेजंस ने 72 साल के एक व्यक्ति का 500 लोगों के सामने एक थिएटर में पोस्टमॉर्टम किया था। इस पोस्टमॉर्टम से पहले डॉ. हेजंस को हेल्थ डिपार्टमेंट ने चेतावनी भी दी थी लेकिन उन्होंने इसे नजरअंदाज करके थिएटर में इस काम को अंजाम दे दिया था। पोस्टमॉर्टम की इस प्रक्रिया का चैनल-4 ने प्रसारण किया था। तब इस पर काफी बवाल हुआ था।