तीन स्टार
तमाम विवादों, अड़ंगों और पेचीदगियों के बावजूद आखिर सौमिक सेन की फिल्म गुलाब गैंग सिनेमा हॉल तक पहुंच ही गई। फिल्म की कहानी है एक महिला रज्जो (माधुरी दीक्षित) की। वह लोगों के हितों के लिए लड़ती है। आसपास के क्षेत्रों में उसकी खासी धमक है। एक बड़ी नेता सुमित्रा बागरेचा (जुही चावला) की पार्टी का नेता उसके पास सपोर्ट मांगने आता है और पा भी जाता है। मगर बदलते घटनाक्रम के बीच हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि रज्जो और जुही चावला में ठन जाती है। इस बीच सुमित्रा समझौता करने के लिए रज्जो को बुलाती है और उसे अपनी पार्टी से चुनाव लडऩे का लालच देती है। मगर रज्जो को यह बातें नहीं सुहातीं और वह सुमित्रा के सामने चुनाव लडऩे का फैसला करती है। यहां से शुरू होती है, महत्वाकांक्षा, राजनीतिक साजिश और दो औरतों के अहं की लड़ाई।
फिल्म की सबसे खास बात है माधुरी दीक्षित और जुही चावला। जिस भी फ्रेम में यह दोनों साथ या अलग-अलग आती हैं, पूरी तरह छा जाती हैं। खासतौर पर जुही चावला। एक चालाक, कपटी और भ्रष्ट नेता के रोल में उन्होंने जान फूंक दी है। उनकी बॉडी लैंग्वेज, चेहरे की भाव-भंगिमा और डायलॉग डिलीवरी देखकर हो सकता है आपको एकबार यकीन ही न आए कि इसी जुही को आपने कुछ बेहद चुलबुली और मजाकिया भूमिकाओं में देखा है। माधुरी दीक्षित ने भी अपने किरदार में जान फूंक दी है। खासकर एक्शन दृश्यों में उनकी मेहनत देखते ही बनती है। नृत्य में तो खैर वो पारंगत हैं ही।
फिल्म के अन्य किरदारों में माधुरी के साथ तनिष्ठा चटर्जी, दिव्या जगदाले, प्रियंका बोस आदि ने भी अच्छा काम किया है।
फिल्म की कहानी और निर्देशन में खामियां हैं। शुरुआत में नारी सशक्तिकरण के मुद्दे को उठाते हुए दिखाया जाता है, लेकिन आखिरकार यह एक राजनीतिक गैंगवार तक सिमटकर रह जाती है। कहानी के स्तर पर भी काफी बिखराव है। रिसर्च के स्तर पर भी खामियां हैं। फिल्म में लोकेशन और गाडि़यां मध्य प्रदेश की दिखाई गई हैं, लेकिन एक जुही चावला के किरदार को कुछ कागजात पर दस्तखत करते दिखाया गया है, जिनपर उत्तर प्रदेश और लखनऊ लिखा है। इसी तरह जुही चावला को एक बहुत बड़ा पॉलिटिशियन बताया गया है, उनके सामने पुलिस के अधिकारी तक झुकते हैं और जो नहीं झुकते उन्हें सस्पेंड कर दिया जाता है। मगर जब वह चुनाव लड़ती हैं तो वोट बैलट पेपर से डाले जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में बैलट से वोट तो पंचायत के चुनावों में ही डाले जाते हैं, तो क्या इतनी बड़ी नेता पंचायत चुनाव लडऩे आ गई? यह समझ से परे है। फिल्म के आखिर में जुही चावला से मशीनगन से गोली चलवा डाली है, जो बहुत बेतुका लगता है। इसके अलावा ढेर सारे गाने भी मजा किरकिरा करते हैं।
फिल्म के डायलॉग्स भी काफी अच्छे हैं। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। एक्शन दृश्यों को देखने में मजा आता है। इसके अलावा कोरियोग्राफी भी बढि़या है। गीत-संगीत फिल्म का साथ देते हैं।
गुजरे जमाने की दो शानदार अदाकाराओं को एकसाथ परदे पर देखने का यह बेहतरीन मौका है। खासकर उनके अभिनय की नई ऊंचाईयों के साथ। वैसे ओवरऑल देखें तो फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। वही भ्रष्टाचार, अराजकता, अफसरों का जनता की बातें न सुनना आदि-आदि।
फिल्म में इंदौर शहर के अंकित शर्मा ने भी काम किया है। उन्होंने सरजू नाम का किरदार निभाया है जो अपनी पत्नी को प्रताडि़त करता है। वह फिल्म में माधुरी दीक्षित के हाथों में थप्पड़ भी खाते हैं। करीब 15 मिनट के रोल में अंकित ने अच्छा काम किया है।
तमाम विवादों, अड़ंगों और पेचीदगियों के बावजूद आखिर सौमिक सेन की फिल्म गुलाब गैंग सिनेमा हॉल तक पहुंच ही गई। फिल्म की कहानी है एक महिला रज्जो (माधुरी दीक्षित) की। वह लोगों के हितों के लिए लड़ती है। आसपास के क्षेत्रों में उसकी खासी धमक है। एक बड़ी नेता सुमित्रा बागरेचा (जुही चावला) की पार्टी का नेता उसके पास सपोर्ट मांगने आता है और पा भी जाता है। मगर बदलते घटनाक्रम के बीच हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि रज्जो और जुही चावला में ठन जाती है। इस बीच सुमित्रा समझौता करने के लिए रज्जो को बुलाती है और उसे अपनी पार्टी से चुनाव लडऩे का लालच देती है। मगर रज्जो को यह बातें नहीं सुहातीं और वह सुमित्रा के सामने चुनाव लडऩे का फैसला करती है। यहां से शुरू होती है, महत्वाकांक्षा, राजनीतिक साजिश और दो औरतों के अहं की लड़ाई।
फिल्म की सबसे खास बात है माधुरी दीक्षित और जुही चावला। जिस भी फ्रेम में यह दोनों साथ या अलग-अलग आती हैं, पूरी तरह छा जाती हैं। खासतौर पर जुही चावला। एक चालाक, कपटी और भ्रष्ट नेता के रोल में उन्होंने जान फूंक दी है। उनकी बॉडी लैंग्वेज, चेहरे की भाव-भंगिमा और डायलॉग डिलीवरी देखकर हो सकता है आपको एकबार यकीन ही न आए कि इसी जुही को आपने कुछ बेहद चुलबुली और मजाकिया भूमिकाओं में देखा है। माधुरी दीक्षित ने भी अपने किरदार में जान फूंक दी है। खासकर एक्शन दृश्यों में उनकी मेहनत देखते ही बनती है। नृत्य में तो खैर वो पारंगत हैं ही।
फिल्म के अन्य किरदारों में माधुरी के साथ तनिष्ठा चटर्जी, दिव्या जगदाले, प्रियंका बोस आदि ने भी अच्छा काम किया है।
फिल्म की कहानी और निर्देशन में खामियां हैं। शुरुआत में नारी सशक्तिकरण के मुद्दे को उठाते हुए दिखाया जाता है, लेकिन आखिरकार यह एक राजनीतिक गैंगवार तक सिमटकर रह जाती है। कहानी के स्तर पर भी काफी बिखराव है। रिसर्च के स्तर पर भी खामियां हैं। फिल्म में लोकेशन और गाडि़यां मध्य प्रदेश की दिखाई गई हैं, लेकिन एक जुही चावला के किरदार को कुछ कागजात पर दस्तखत करते दिखाया गया है, जिनपर उत्तर प्रदेश और लखनऊ लिखा है। इसी तरह जुही चावला को एक बहुत बड़ा पॉलिटिशियन बताया गया है, उनके सामने पुलिस के अधिकारी तक झुकते हैं और जो नहीं झुकते उन्हें सस्पेंड कर दिया जाता है। मगर जब वह चुनाव लड़ती हैं तो वोट बैलट पेपर से डाले जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में बैलट से वोट तो पंचायत के चुनावों में ही डाले जाते हैं, तो क्या इतनी बड़ी नेता पंचायत चुनाव लडऩे आ गई? यह समझ से परे है। फिल्म के आखिर में जुही चावला से मशीनगन से गोली चलवा डाली है, जो बहुत बेतुका लगता है। इसके अलावा ढेर सारे गाने भी मजा किरकिरा करते हैं।
फिल्म के डायलॉग्स भी काफी अच्छे हैं। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। एक्शन दृश्यों को देखने में मजा आता है। इसके अलावा कोरियोग्राफी भी बढि़या है। गीत-संगीत फिल्म का साथ देते हैं।
गुजरे जमाने की दो शानदार अदाकाराओं को एकसाथ परदे पर देखने का यह बेहतरीन मौका है। खासकर उनके अभिनय की नई ऊंचाईयों के साथ। वैसे ओवरऑल देखें तो फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। वही भ्रष्टाचार, अराजकता, अफसरों का जनता की बातें न सुनना आदि-आदि।
फिल्म में इंदौर शहर के अंकित शर्मा ने भी काम किया है। उन्होंने सरजू नाम का किरदार निभाया है जो अपनी पत्नी को प्रताडि़त करता है। वह फिल्म में माधुरी दीक्षित के हाथों में थप्पड़ भी खाते हैं। करीब 15 मिनट के रोल में अंकित ने अच्छा काम किया है।
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