'आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।'
ये वो कविता है, जिसे पढ़कर मैंने अदम गोंडवी को जाना था। इसके बाद कविताकोश के जरिए उनकी कई कविताओं को पढ़ा। यह बताने की जरुरत नहीं कि उनकी कविताओं में समाज, शासन और राजनीति की विडंबनाओं पर किस कदर तल्खी भरी हुई है।
ऊपर जिस कविता का जिक्र कर चुका हूं, उसके बारे में बताते हैं कि वह उनके ही गांव की एक घटना का जीवंत वर्णन है। जिस वक्त वहां पर दबंगों के खिलाफ आवाज उठाने में लोगों की रूह कांप रही थी, अदम गोंडवी ने इस कविता के जरिए बिगुल बजाया था। इस कविता को पढ़ते हुए आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
सिर्फ यही कविता क्यों, अदम साहब की हर कविता में जिंदगी का हर रंग मौजूद है। विद्रोह का हर लहजा, हर तेवर बरकरार है। उन्होंने युवा पीढ़ी की हताशा को कितने सटीक अंदाज में बयां किया है...
''जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये''
युवा पीढ़ी से जुड़ी यह पंक्तियां भी...
''इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया,
सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की।''
उनकी एक और कविता में समाज में अभावों के बीच जिंदगी गुजार रहे लोगों की बात कुछ यूं बयां की गई है...
''घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है''
उन्होंने राजनीति पर भी करारे व्यंग्य किए हैं...
'एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे'
'काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में
रामराज उतरा है विधायक निवास में '
जैसी लाइनों के जरिए उन्होंने राजनीति के खोखले आदर्शों और राजनीतिज्ञों के दुहरे चरित्र पर खुलकर वार किए।
समाज की एक और तल्ख सच्चाई अदम गोंडवी की कविता में कैसे निकली है...
'रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है'
यही नहीं, उन्होंने कौमी एकता को भी अपनी कविता की आवाज दी। ये लाइनें गवाह हैं...
''हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये''
मैं इसे अपना दुर्भाग्य ही मानूंगा कि अदम गोंडवी से कभी मिल नहीं पाया। मगर यह भी सच है कि उनकी कविता की तल्खी और उस बेबाकी के जरिए उनसे कई दफे रूबरू हो चुका हूं। और यह भी उतना ही सच है कि उस तेवर को हमेशा-हमेशा मिस करुंगा।
हकीकत यह है कि अदम गोंडवी या दुष्यंत कुमार जैसे रचनाकार किसी वक्त या दौर के मोहताज नहीं हैं। हर वक्त हर दौर में वो उतने ही प्रासंगिक हैं। वह हर दौर की युवा पीढ़ी के नायक रहेंगे।
(अदम गोंडवी की रचनाएं पढ़ने के लिए नीचे लिंक को क्लिक करें।)
कविता-कोश का लिंक।
Monday, December 19, 2011
Friday, December 9, 2011
काश, 'हमारी' भी ऐसे ही सुनते मंत्री जी!
अभी कुछ दिनों पहले की बात है। कुछ सांसदों को फर्स्ट क्लास में सफर करने को नहीं मिला तो बड़ा शोर-शराबा मचाया महानुभावों ने। मामला रेलवे मिनिस्टर तक पहुंचा दिया। रेलवे मिनिस्टर ने भी फटाफट मामले को संज्ञान में लेकर फौरी कार्रवाई शुरू कर दी।
मेरे जेहन में दो सवाल आए, एक तो काश, देश के मंत्री जी लोग हर मामले को इतनी ही संजीदगी से लेते और दूसरा कि देश में ना जाने कितने लोग रोज रेलगाड़ी से यात्रा करते हैं। इनमें से बहुत से लोगों को जगह भी नहीं मिल पाती, मगर वह किसी से अपनी शिकायत नहीं कर पाते। बस व्यवस्था को कोसकर खुद को तसल्ली दे लिया करते हैं।
पिछले दिनों मुझे खुद भी एक वाकया देखने को मिला। घर से वापस नौकरी पर, यानी आज़मगढ़ से कानपुर आते वक्त एक ऐसा ही मामला देखने को मिला। मेरी सीट के बगल में एक महिला अपने दो बच्चों के साथ दोनों सीटों के बीच की जगह में लेटी हुई थी। दरअसल उनका टिकट कन्फर्म नहीं था। उसे कोई सीट नहीं मिल रही थी और मजबूरन उसे अपना पूरा सफर उसी जगह पर लेटकर पूरा करना पड़ा।
अब जब नेताओं की इस 'असुविधा' के बारे में पता चला तो बड़ी हैरानी हुई। काश, देश की जनता की बात भी इतनी ही फिक्र होती। काश, देश की जनता से जुड़े मामलों को लेकर मंत्री जी लोग इतने ही सक्रिय होते। काश, जनता से जुड़े मामलों में इतना ही फौरी निर्णय होता। काश!
मेरे जेहन में दो सवाल आए, एक तो काश, देश के मंत्री जी लोग हर मामले को इतनी ही संजीदगी से लेते और दूसरा कि देश में ना जाने कितने लोग रोज रेलगाड़ी से यात्रा करते हैं। इनमें से बहुत से लोगों को जगह भी नहीं मिल पाती, मगर वह किसी से अपनी शिकायत नहीं कर पाते। बस व्यवस्था को कोसकर खुद को तसल्ली दे लिया करते हैं।
पिछले दिनों मुझे खुद भी एक वाकया देखने को मिला। घर से वापस नौकरी पर, यानी आज़मगढ़ से कानपुर आते वक्त एक ऐसा ही मामला देखने को मिला। मेरी सीट के बगल में एक महिला अपने दो बच्चों के साथ दोनों सीटों के बीच की जगह में लेटी हुई थी। दरअसल उनका टिकट कन्फर्म नहीं था। उसे कोई सीट नहीं मिल रही थी और मजबूरन उसे अपना पूरा सफर उसी जगह पर लेटकर पूरा करना पड़ा।
अब जब नेताओं की इस 'असुविधा' के बारे में पता चला तो बड़ी हैरानी हुई। काश, देश की जनता की बात भी इतनी ही फिक्र होती। काश, देश की जनता से जुड़े मामलों को लेकर मंत्री जी लोग इतने ही सक्रिय होते। काश, जनता से जुड़े मामलों में इतना ही फौरी निर्णय होता। काश!
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