दीपक की बातें

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Tuesday, February 26, 2013

फिर एक ख्वाब

फिर एक ख्वाब ने डरा​ दिया
दादी—मां की तमाम तरकीबें याद आ गईं।
बचपन में उठ जाता था जब पसीने—पसीने होकर
पता नहीं कैसे वो जान जातीं
कोई डरावना सपना देखा होगा!
हनुमान चालीसा गातीं,
सिरहाने लोहे का चाकू रखतीं
सिर पर हाथ फेरतीं तो डर गायब, नींद आ जाती।
तब से कई सपने देखे,
और सपनों में मंजिलों के रास्ते!
उन मंजिलों की तलाश में,
मुसाफिर बनकर भटक रहा हूं।
और अब सपने अक्सर डरा दिया करते हैं!

Saturday, February 16, 2013

जम्मू—कश्मीर का हीरो, परवेज रसूल

क्या आप परवेज रसूल को जानते हैं? शायद नहीं। चलिए आपको बता देते हैं। परवेज रसूल जम्मू कश्मीर की रणजी टीम से खेलते हैं और इन दिनों बोर्ड प्रेसीडेंट इलेवन टीम में शामिल हैं। वह भारत दौरे पर आई ऑस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ खेल रहे हैं। कल उन्होंने अपनी स्पिन गेंदबाजी से कंगारुओं का कड़ा इम्तिहान लेते हुए सात विकेट झटक डाले। एक तरफ जब अफजल गुरू की फांसी के बाद जम्मू कश्मीर जल रहा है, परवेज रसूल वादियों से किसी खुशनुमा बयार की तरह आए हैं।

क्रिकेट के आसमान में भी परवेज रसूल की बहुत चर्चा नहीं है। वजह वह उस प्रदेश की टीम के सदस्य हैं, जो गोलियों, पत्थरों और प्रदर्शनों के लिए सुर्खियों में रहता है, बजाए किसी क्रिकेटर के प्रदर्शन के। वैसे परवेज के लिए भी जिंदगी बहुत आसान नहीं रही है। एक ऐसा भी दौर आया था जब लगा, चीजें हाथ से छूट जाएंगी। गेंद और बल्ले को लेकर देखे ख्वाब बिखरते से लग रहे थे।

यह बात अक्टूबर 2009 की है। जम्मू-कश्मीर की टीम कर्नल सीके नायडू टूर्नामेंट खेलने के लिए कर्नाटक में थी। यहीं जांच के दौरान पुलिस को शक हुआ कि रसूल के किट बैग में विस्फोटक है। इसके बाद रसूल को थाने में बिठा लिया गया। हालांकि बाद में वह पाक-साफ निकले, लेकिन इस घटना ने उन्हें हिलाकर रख दिया था। कई रातें उन्होंने बेचैनी में गुजार दीं। नींद गायब थी। क्रिकेट छोड़ देने तक का ख्याल मन में आने लगा था। फिर अचानक चीजें बदलीं। रसूल ने बल्ला हाथ में पकड़ा और गेंद के साथ दूसरी तमाम चीजों को हिट करना शुरू कर दिया।

उस बात को लंबा अरसा बीत चुका है। दाहिने हाथ से बल्लेबाजी और गेंदबाजी करने वाला यह हरफनमौला क्रिकेटर अब बस अपने खेल पर ध्यान देता है। 17 प्रथम श्रेणी मैचों में उनके नाम 3 शतक और 2 अर्धशतकों के साथ 46 विकेट भी हैं। यह रसूल की साधना का फल है कि कल उसने कंगारुओं को तिगनी का नाच नचा डाला। एक ऐसे वक्त में जब भारतीय टीम एक अदद क्वॉलिटी ऑफ स्पिनर को तरस रही है। आर आश्विन फॉर्म में नहीं हैं, मजबूरन हमें वापस हरभजन सिंह की तरफ देखना पड़ा है। कंगारू चुनौती दे रहे हैं कि भारतीय स्पिनरों को देख लेंगे, कौन जाने बारूदों की गंूज के बीच क्रिकेट का ककहरा सीखा यह शख्स भारतीय गेंदबाजी की नई तोप साबित हो जाए!

Tuesday, February 12, 2013

रेडियो से अपना याराना

रेडियो से अपना याराना भी काफी पुराना है।  1995 का साल। मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ता था। यहीं से मेरा रेडियो से दोस्ताना हुआ। मेरे चाचाजी के हाथ में परमानेंट रेडियो होता था और मैं परमानेंट चाचाजी के साथ। 1996 क्रिकेट विश्वकप के दौरान रेडियो से प्रेम और गहरा हुआ और गहराता ही चला गया। बाद में इस प्रेम की परिणति क्रिकेट से अथाह लगाव के रूप में हुई।

चाचाजी के साथ सुबह का समाचार, प्रादेशिक समाचार, बीबीसी हिंदी, फिल्मी नगमे, दोपहर को आने वाले भोजपुरी गीत, क्रिकेट कमेंट्री सब सुनता रहता था। जब चाचाजी खेतों की देखभाल करने उधर जाते तो रेडियो साथ ही लेकर जाते। मैं स्कूल से वापस आता और चाचाजी को घर पर नहीं पाता तो बेचैन आत्मा की तरह मैं भी खेतों की तरफ चल देता। हालांकि इस चक्कर में कई बार चाचाजी से डांट पड़ती। अक्सर मेरी पढ़ाई—लिखाई की दुहाई देकर मुझे रेडियो से दूर ही रखने की भरपूर कोशिश होती थी, लेकिन मुझे जब भी मौका मिलता मैं रेडियो से चिपक जाता।

जब पढ़ाई का सिलसिला आगे बढ़ा तो चाचाजी ने मुझे रेडियो से दूर रखने के लिए मुझसे दोस्ती तोड़ ली। अब तो जिस दिन चाचाजी किसी रिश्तेदारी या शादी में जाते मेरे लिए वह दिन रेडियोमय हो जाता। देर रात तक रेडियो। घरवालों की खूब डांटें पड़तीं, लेकिन परवाह किसे थी? फिर अगले दिन जब चाचाजी आते और रेडियो की लो बैटरी देखकर मेरी जमकर क्लास लेते।


मेरे रेडियो प्रेम में कई रिश्तेदारों का भी अनमोल योगदान है। खासकर मेरे दूर के मामाजी, जिन्हें सारे रेडियो चैनल्स की फ्रीक्वेंसी और कार्यक्रम पता होता था। वह रेडियो ट्यून करते और कहते, ये लीजिए यह रायपुर केन्द्र है। यही नहीं वह कई अन्य भाषाओं के स्टेशन भी ट्यून करते जिनपर फिल्मी गाने आते थे। और भी ढेरों यादें हैं, लेकिन उनके लिए और ज्यादा वक्त चाहिए। अब तो रेडियो के नाम पर सिर्फ एफएम चैनल्स हैं, जिन्हें न सुनना ही बेहतर लगता है, क्योंकि यह न अच्छा बोल पाते हैं और न अच्छा सुना पाते हैं। हां, जबसे इंदौर आया हूं, विविध भारती के साथ फिर से दोस्ती जमाने की कोशिश जारी है।

Saturday, February 2, 2013

कुछ अलग, पर उलझी है विश्वरूपम

एक आतंकी है, जो गोरों को मिटा देना चाहता है, लेकिन अपने बेटे की मौत पर वह टूट जाता है। वह सवाल करता है कि अल्लाह, उसके साथ क्यों नहीं है, जबकि वह अल्लाह की ही लड़ाई लड़ रहा है? अफसोस, वह तब इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ पाता जब धर्म के नाम पर लोगों को मौत बांटने के लिए बरगलाता है। मेरे हिसाब से 'विश्वरूप या 'विश्वरूपम एक बेहद खूबसूरत फिल्म बनते-बनते रह गई। फिल्म में कुछ चीजों को इतनी खूबसूरती के साथ पोर्टे किया गया है कि यह दिल को छू जाती है। खास तौर पर प्रतीकात्मकता का बेहतरीन उपयोग है। जैसे, एके-47 पर एक मक्खी भिनभिना रही है, उसे नहीं पता कि वह मौत के किस खिलौने के साथ खेल रही है। ऐसे ही एक और सीन में जान देने से पहले जिस तरह सुसाइड बांबर बना लड़का झूले पर झूलता है। जब झूला उड़ान भरता है तो लगता है जैसे वह लड़का खुदा से मिलने जा रहा है। कुछ दृश्य बेहद क्रूर भी हैं, लेकिन वह फिल्म की जरूरत हैं। जब आप आतंकी क्रूरता की कुछ बेहद तल्ख सच्चाइयों से रूबरू हो रहे हों, तो इतना तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा।

कमल ही कमल
बड़े नामों के साथ एक बड़ी प्रॉब्लम होती है। फिल्म में उनपर इतना ज्यादा फोकस होता है कि बाकी चीजें आउट ऑफ फोकस हो ही जाती हैं। 'विश्वरूपम के साथ भी यही समस्या है। कमल हासन की अन्य कुछ फिल्मों की तरह यह भी पूरी तरह कमल पर ही केन्द्रित है। कमल का शानदार नृत्य, कमल की शानदार एक्टिंग, कमल की शानदार कलाबाजियां, कमल का रूप बदलना यानी बस कमल ही कमल। कमल को खिलाने के चक्कर में कहानी उलझ गई है और ऐसी उलझी है कि आखिर तक कोई सिरा हाथ नहीं आता। शुरुआत में कमल कथक नृत्य में भावनाओं का बेहतरीन का आरोह-अवरोह पेश करते हैं। बिरजू महाराज के नृत्य निर्देशन में वह शानदार हैं, मगर यह जादू बहुत सीमित समय तक ही रह पाता है। शुरुआती आधे घंटे तक फिल्म एक अलहदा अहसास दिलाती है।

कमाल के कमल

फिल्म की शुरुआत होती है एक शक्की पत्नी के अपने पति पर शक से। असल में पत्नी अपने पति को नॉर्मल मानती ही नहीं। माने भी कैसे, एक नर्तक होने के नाते, उसकी भाव भंगिमाएं स्त्रियोचित हैं। पत्नी का दूसरे पुरुष से चक्कर है। अब वह अपना दोष मिटाने के लिए पति में दोष ढूंढ रही है और उसके पीछे जासूस लगा रखा है। गलती से एक दिन यही जासूस हीरो का पीछा करते-करते एक गलत जगह पहुंच जाता है। बस यहीं से कहानी टर्न लेती है और जो खुलासे होते हैं, वह आपको चौंकाते चले जाते हैं। हालांकि चौंकाने का यह सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल पाता। एक खास मोड़ तक आते-आते फिल्म अटकने लगती है। सीन रिपीट होने लगते हैं और यह फिल्म की पकड़ खराब करने के अलावा कुछ नहीं करते। इस दौरान अगर कुछ आपको बांधे रखता है तो वह है कमल हासन का उम्दा अभिनय। उनके किरदार की विभिन्न परतें हैं और उन्होंने हर परत पर जमकर कूंची चलाई है। इसके अलावा अभिनय में राहुल बोस हैं, जयदीप अहलावत और पूजा भी। इन्हें जब भी मौका मिलता है, ये पूरी शिद्दत के साथ अपने किरदार को उभारकर लाते हैं। खासकर राहुल बोस जो कि ओमर बने हैं, जिनका रोल एक आंख वाले आतंकी मुल्ला उमर से प्रेरित है।

किस बात का विरोध
जहां तक विवादों की बात है तो बता दूं कि फिल्म में एेसा कुछ नहीं, जिसे लेकर हंगामा खड़ा किया जाए। लगता है जिस तरह आतंकी बार-बार धर्मविशेष का नारा बुलंद करते हैं, उस पर यह आपत्ति आई हो। हालांकि फिल्म के परिप्रेक्ष्य में यह जरूरी लगता है। फिल्म देखकर लौटते वक्त मेरे दिमाग में एक दोस्त का फेसबुक स्टेटस बार-बार आ रहा था। यह भारत है, जहां हम बिना शाहरुख खान का आर्टिकल पढ़े, बिना आशीष नंदी को सुने और बिना कमल हासन की फिल्म देखे सिर्फ विरोध करने पर आमादा हो जाते हैं।
(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित )